1880 लखनऊ में रोड किनारे मिठाई बेचते हुए… मशहूर मिष्ठान सेठों के दादा परदादा!

एक समय था जब अधिकतर ब्राह्मणों, ठाकुरों, भूमिहारों, कायस्तों के दादा परदादा कई गाँव की ज़मींदारी सम्भालते थे, सैकड़ों बीघे की खेती बारी थी और जो आज के रसूखदार नामचीन होटेलियर हैं अधिकतरों के बाप दादा ऐसे ही रेवड़ियाँ बेचा करते थे!
ख़ैर आज हमारे पास शायद उतना भी नहीं बचा जितना उस ज़माने में हमारे दादा परदादा पनवाड़ियों और धोबियों को ज़मीन दान दे देते थे!
तस्वीर साझा करने का आशय यह नहीं की हमें इस बात से कुंठा है, तस्वीर इस लिए शेयर किए की आप की आज की तस्वीर आप की कल की तक़दीर नहीं है, हमने और हमारे पूर्वजों ने अपने आज की चिंता की हमें भी वही सिखाया … हम में से अधिकतर लोग आज भी आज की चिंता में बैंक EMI पर जी खा रहे हैं!
हमें सीखना चाहिए उनके पूर्वजों से जिन्होंने ने तंगहाली में भी सिर्फ़ अपने आज की नहीं अपने आने वाले कल की चिंता की, भले सड़क पर समोसा जलेबी बेची रेवड़ियाँ बेची, एक जोड़ी धोती में रातें काट दी, लेकिन अपने आज को अपनी कल की तस्वीर नहीं बनने दिया.
आज की चिंता करने वाले का बच्चा जब बड़ा होता है तो उसी शून्य से अपना जीवन शुरू करता है जिस शून्य से उसके पिता ने शुरू किया था… और सड़क पर समोसा मिठाई बेचने वाले सौ में से नब्बे अपने बच्चे को समोसे मिठाइयों की दुकान देके जाते हैं …
आज की चिंता करने वालों के लिए सबसे बड़ी विरासत “शून्य” है! इसे बदलना होगा!
- AnoopMishra