अनुभव सूखे उपदेशों की अपेक्षा अधिक शिक्षाप्रद होते हैं।


हमारे गांँव में एक पटवारी जी थे- नाम था लाला हुब्बलाल। मैं जब छोटा था, तो देखा करता था कि उनके पास जैसी बड़ी घोड़ी है, वैसी गांँव भर में किसी जमीदार के पास नहीं है। कहने को तो उन्हें 13 या 14 रुपए ही तनख्वाह के मिलते थे, पर उन्होंने गाँव की पटवारगीरी में ही हजारों रुपया कमाया था। उनके से ठाट-बाट अच्छे-अच्छे जमीदारों के न थे। आतंक ऐसा था कि जिसकी तरफ लालाजी की टेढ़ी नजर हो जाती, वह भय से सूख जाता और जिस पर उनकी कृपा-दृष्टि होती, वह अपने को अभय समझता। मुकदमेबाजी में, जाल बनाने में, आपस में लड़ा देने में, सरकार-दरबार में, गुण्डे बदमाशों में उनकी अच्छी पहुंँच थी। जिस बात का इरादा कर लेते, किसी भी कूटनीति से उसे पूरा करके ही मानते। उनके कोप ने कई खाते-पीते घरों को धूल में मिला दिया। कई सियार शेर बन गए। ऐसे थे वह पटवारीजी -लाला हुब्बलाल जी। मैं बड़ा हुआ, गांँव का मदरसा पास करके आगरा आ गया। अध्ययन के साथ कुछ सेवा कार्य भी करता था। हमारी सेवा-समिति ने जाड़े के दिनों में अपाहिज़ों को कम्बल और रजाइयाँ बांँटने का प्रबन्ध किया था। इसी सिलसिले में दौरा करने मैं जिले में घूम रहा था। अपाहिज़ों की सूची तैयार की जा रही थी। घूमता-घूमता अपने गांँव भी पहुंँचा। पूछताछ की, तो पटवारी जी का नाम सबसे पहले लिखाया गया। मैं आश्चर्य से सन्न रह गया। 6 -7 वर्ष पहले जो पटवारी गांँव के बेताज बादशाह थे, आज उनका यह हाल है कि अपाहिज़ों के कम्बल दिए जाएंँ। उनकी नौकरी छूटने और बीमार पड़ जाने का तो मुझे पता था, पर यह नहीं मालूम था, कि अब ऐसी दशा हो गई है। मैं उठा और पूरा विवरण जानने के लिए उनके पास चल दिया। लालाजी एक टूटी चारपाई पर फटे-टूटे चिथड़ों में लिपटे पड़े थे। लकवा मार गया था, हाथ-पैर हिलते न थे। शौच के लिए उठा न जाता था, स्नेही-संबंधी किनारा कर गए थे, कोई सहायक न था। चारपाई में एक छेद कर लिया था, जिसमें से ही टट्टी हो लेते, शौच-शुद्धि का कोई प्रबन्ध न था। भोजन की व्यवस्था ईश्वर के आधीन था। उनका स्वभाव ऐसा कातर हो गया था, कि किसी पूर्व परिचित व्यक्ति को देखते ही फूट-फूट कर रो पड़ते थे। मैं उनके पास पहुंँचा तो बिना पूछताछ किए 'लल्लू-लल्लू' कहकर फूट-फूट कर रोने लगे। मैं भी अपने को सम्भाल न सका, उनकी चारपाई के सिरहाने बैठकर आंँसू बहाने लगा। एकान्त में हम दोनों ही रो रहे थे। कोई तीसरा देखने वाला न था। दोनों में से किसी के मुंँह से एक शब्द भी न निकलता था, फिर भी परस्पर वार्तालाप जारी था। उनके आंँसू कह रहे थे -"पाप का परिणाम देखो।" मेरे आंँसू कह रहे थे- "चार दिन की चांँदनी में इतराना व्यर्थ है।" लाला जी की दशा का एक-एक अंग मैंने अध्ययन किया। यह अध्ययन मेरे मस्तिष्क में कीलें ठोक-ठोक कर समझा रहा था, कि- "जीवन जैसी अमूल्य वस्तु का सदुपयोग होना चाहिए।" इन्हीं क्षणों ने जीवन में क्रान्ति उपस्थित कर दी। भावी जीवन में धन, ऐश्वर्य, वैभव, कीर्ति आदि के जो सपना देखा करता था, वह तत्क्षण तिरोहित हो गए। लाला जी ने मूक शब्दों में कहा-"लल्लू मेरी और देख!" मैंने ध्यानपूर्वक देखा और निश्चय किया कि वह अज्ञान, अविवेक, पाप और पतन जिसके कारण हमारे लाला जी की यह दशा हो रही है, हमें संसार से मिटाना होगा और निद्रित मानव-जाति को जगाकर बताना होगा, कि पाप की भयंकरता को देखो और उससे सावधान होकर बचो! जो सहायता मुझसे हो सकती थी, लाला जी को दी और नमस्कार करके चला गया। आधा घण्टे का यह सत्संग जिसमें मूक रोदन के अतिरिक्त शब्दों का प्रयोग बहुत ही कम हुआ था, मेरे लिए हजार गीता पाठों से अधिक शिक्षाप्रद साबित हुआ। उन्ही घड़ियों से प्रभावित होकर मैं धर्म प्रचार में लग गया और आज धर्म प्रचारक के रूप में अखण्ड ज्योति के सम्पादक के रूप में दुनियाँ के सामने मौजूद हूंँ। निस्सन्देह घटनाओं के आधार पर जो अनुभव होता है, वह बड़ा ही ठोस, गम्भीर, प्रभावशाली और महत्वपूर्ण होता है। हमारा विचार है, कि यह अनुभव सूखे उपदेशों की अपेक्षा अधिक शिक्षाप्रद होंगे।

  • पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
    (संकलित व सम्पादित)
    अखण्ड ज्योति अगस्त 1942, पृष्ठ 5

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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