
श्रद्धेय श्री सत्यपाल मलिक साहब की पत्नी डॉ. इक़बाल कौर मलिक पर्यावरणविद, शोधकर्ता, प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता रही हैं, पति सत्यपाल मलिक के जाने पर लिखें एक मार्मिक पत्र का संक्षिप्त रूप है यह —
प्रिय सत्यपाल,
मैं अभी-अभी विद्युत शवदाहगृह से लौटी हूँ। कोई न्यौता नहीं भेजा गया, कोई घोषणा नहीं की गई, फिर भी लोग आ गए—कुछ मन से, कुछ मौन से, कुछ श्रद्धा में भीगकर। यह खबर आमंत्रणों से नहीं, हृदय से हृदय पहुँची थी।
तुम केवल नेता नहीं थे, तुम दिशा थे—स्थिर, शांत, सच्चे। लोगों के लिए तुम जनप्रतिनिधि नहीं, परिवार के सदस्य थे। तुमने नाम याद रखे, अनुपस्थिति पहचानी, छोटे सपनों में भी साथ दिया। फसल में, बीमारी में, आंदोलन में—तुम हर मोड़ पर उनके साथ खड़े रहे।
आज मैं स्तब्ध थी, जैसे सब कुछ धुँधला हो गया हो। कोई शब्द नहीं निकल पाया—भारी, भंगुर, असहाय।
मुझे अब भी याद है, तुम्हें पहली बार कॉलेज के फाटक पर देखा था। तुमने शांत स्वर में कहा, “आज हड़ताल है, वापस जाओ।” मैं नहीं मानी। क्या जानती थी कि यही लड़का एक दिन मेरे जीवन का केंद्र बनेगा।
हमारे बीच कोई दावे नहीं थे—केवल सम्मान था, आत्मीयता थी। एक-दूसरे की जगह भी दी, और हर तूफान में साथ भी खड़े रहे। तुमसे ही मैंने समाजवाद सीखा—नारे में नहीं, व्यवहार में। तुम्हारा समाजवाद तुम्हारे चलने में, खाने में, सबसे आख़िरी पंक्ति में खड़े होने में था—निर्भीक और निष्कलंक।
राज्यपाल बने तो भी वही व्यंग्यात्मक मुस्कान लिए कहा, “मैं तो वही हूँ, साहब लोग चारों ओर हो गए हैं।”
कविता, किस्से, गाँव की कहानियाँ, मज़दूरों की पीड़ा, सैनिकों का सम्मान, किसानों की पीड़ा—तुम सबके साथ थे, सबके अपने। ईडी के छापे भी आए तो तुमने उन्हें भी आदर दिया—डर से नहीं, लोकतंत्र में आस्था से।
आज तुम्हारा बेटा तुम्हारी भांति मौन और दृढ़ खड़ा है। बहू तुम्हारी परंपरा को अपनी गरिमा से समृद्ध कर रही है। और मैं—मैं उस रिक्तता से जूझ रही हूँ जो तुम्हारे जाने से बची है—सुबह की नीरवता में, दिन के ठहराव में, शाम की प्रतीक्षा में।
हम सब अपने-अपने ढंग से तुम्हें गौरवान्वित करेंगे, उसी प्रेम के साथ—जो अनंत है, अपार है, और अब मौन में पलता है।
तुम्हारी,
इक़बाल