अवार्ड तो लाने दो यारो! : राजेन्द्र शर्मा

राजनैतिक व्यंग्य-समागम

1. अवार्ड तो लाने दो यारो! : राजेन्द्र शर्मा

भगवा भाईयों ने भी मोदी जी के विरोधियों को वो मुंह तोड़ जवाब दिया है कि पूछो ही मत। एक-एक गिनकर, साल-महीनावार पूरी लिस्ट बनाकर बता दिया है कि मोदी जी को परदेस में कब-कब, कहां-कहां और कौन-कौन से अवार्ड मिले हैं। और यह भी कि मोदी जी से पहले वाले प्रधानमंत्रियों को परदेस में कितने थोड़े अवार्ड मिले थे।

कोई तुलना ही नहीं है भाई साहब। परदेसी अवार्डों में पहले वाले, मोदी का पासंग भी नहीं बैठेंगे। जिन नेहरू जी का इतना शोर सुनते थे कि दुनिया पता नहीं उन्हें कितना मानती थी, कि दुनिया उन्हें गुटनिरपेक्ष आंदोलन के पिताओं में गिनती थी, उन्हें दो, जी हां ठीक सुना, फकत दो विदेशी अवार्ड मिले थे।

और जिन इंदिरा गांधी ने कहते हैं कि दक्षिण एशिया का नक्शा बदल दिया और अमरीका को अपने ठेंगे पर रखा, उन्हें भी ले-देकर सिर्फ दो विदेशी अवार्ड मिले थे।

और राजीव गांधी को तो एक भी विदेशी अवार्ड नहीं मिला, बोफोर्स की तोप की बदनामी और श्रीलंका में हमले के सिवा।

और अपने मोदी जी? सत्तर साल में भारत के सारे प्रधानमंत्रियों को मिलाकर भी जितने अवार्ड मिले होंगे, उससे कम से कम तीन गुना ज्यादा अवार्ड तो अब तक अपने मोदी जी की झोली में आ भी चुके हैं।

जी हां ठीक सुना, पूरे चौबीस-पच्चीस अवार्ड। और अवार्ड मिलने का सिलसिला न सिर्फ लगातार जारी है, बल्कि तेज से तेज ही होता जा रहा है। पांच देशों की आठ दिन की यात्रा पर निकले मोदी जी, घाना और ट्रिनिडाड-टोबैगो से, दो अवार्ड तो अब तक बटोर भी चुके हैं, जबकि तीन देशों का दौरा अभी बाकी ही है। फिर मोदी जी के तीसरे कार्यकाल का दूसरा साल तो अभी शुरू ही हुआ है। ग्यारह साल में पच्चीस यानी साल में सिर्फ सवा दो विदेशी अवार्ड का औसत रहे तब भी, तीसरे कार्यकाल के अंत तक मोदी जी, तीन दर्जन तक तो आंकड़ा पहुंचा ही देंगे।

उड़ती-उड़ती खबर तो यह भी सुनने को मिली है कि मोदी जी अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड बटोरने का विश्व रिकार्ड तो चालू विदेश यात्रा शुरू होने से बहुत पहले ही तोड़ चुके थे। सच पूछिए तो कोई कंपटीशन तो है ही नहीं। अब तो बस मोदी जी अपना रिकार्ड इतना बड़ा करने में लगे हुए हैं कि उसे बाद में कोई, कभी भी न तोड़ पाए।

अब इससे बढक़र इसका सबूत क्या होगा कि दुनिया भारत को विश्व गुरु और मोदी जी को विश्व सम्राट मान चुकी है। पर हमें पता है कि जलकुकड़े विरोधी अब भी नहीं मानेंगे। उल्टे वे तो मोदी जी के इतने सारे अवार्ड बटोरने का ही मजाक उड़ा रहे हैं। कह रहे हैं कि यह सम्मान पाना नहीं, यह तो अवार्ड वसूली है। मोदी जी छोटे-छोटे देशों को अपने दौरे के फायदे बताते हैं, फिर दौरे के लिए अवार्ड दिए जाने की शर्त लगाते हैं ; इस तरह खोज-खोजकर ऐसे देशों से और ऐसे-ऐसे अवार्ड लाते हैं, जिनके नाम किसी ने सुने भी नहीं होते हैं।

लेकिन, यह सब झूठ है। चौबीस-पच्चीस अवार्ड की इस गिनती में मोदी जी ने कोटलर अवार्ड को तो गिना तक नहीं है। सुनते हैं कि पहला और आखिरी कोटलर अवार्ड किसी चालू हिंदुस्तानी ने ही मोदी जी को पकड़ा दिया था। मोदी जी की भी बात सही है, विदेशी नहीं, तो अवार्ड नहीं। वर्ना कौन सा देसी अवार्ड है, जो खुद-ब-खुद मोदी जी के चरणों में आकर नहीं गिर गया होता। मोदी जी चाहते तो हर रोज अवार्ड लेते, बल्कि दिन में तीन-तीन बार। दिन में जितनी पोशाकें, उतने अवार्ड। जो गिनती अब तक दर्जनों में ही पहुंची है, हजारों में पहुंच जाती।

इतने अवार्ड हो जाते, इतने अवार्ड हो जाते कि मोदी जी के नये बनने वाले महल में भी सजाकर रखने के लिए जगह कम पड़ जाती। बहुत से अवार्ड तो महल के कोनों में, ताखों पर, आलों में, शैया के नीचे पड़े रहते। राष्ट्रीय संग्रहालय की सभी दीर्घाओं में सिर्फ मोदी जी के अवार्ड रहते।

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्योंकि मोदी जी चाहते ही नहीं हैं कि ऐसा कुछ भी हो। परदेसी अवार्डों के साथ, देसी अवार्डों की मिलावट मोदी जी नहीं चाहते। देसी अवार्ड में चुनाव की जीत ही काफी है! चुनाव आयोग छठे-छमाहे तो मोदी जी को यह अवार्ड भी देता ही रहता है। अभी फरवरी में दिल्ली में दिया था। अब साल के आखिर में बिहार में देने की पूरी तैयारी है। इसके लिए करोड़ों वोटरों को चाहे ‘हैं’ से ‘थे’ करना पड़ जाए, चाहे मतदाता सूचियों में कितनी ही काट-छांट करनी पड़ जाए, पर जीत का अवार्ड मोदी जी को ही दिया जाएगा। आखिर, देश की इज्जत तो चुनाव आयोग के ही हाथ में है।

मोदी जी को अगर जीत का अवार्ड भी नहीं दिया, तो दुनिया क्या कहेगी? जिसे खुद भारत वाले गद्दी का अवार्ड देने में हिचक रहे हों, उसे बाकी दुनिया विश्व गुरु का पद कैसे देगी!

बेशक, मोदी जी के विरोधियों का परदेसी अवार्डों में छोटे-बड़े की बात करना, जान-बूझकर मोदी जी के नये भारत को बदनाम करना है। वर्ना यह तो मोदी जी की महानता है कि वह परदेस के मामले में एकदम समदर्शिता बरतते हैं। दूसरे देशों के बीच छोटा-बड़ा नहीं देखते हैं। और अपने सामने छोटा-बड़ा तो खैर बिल्कुल ही नहीं देखते हैं। छोटे से छोटे देशों के, दूसरे-तीसरे नंबर के अवार्डों से भी उतना ही प्रेम करते हैं, जितना कोई और बड़े देशों के नंबर एक के अवार्डों का करता होगा।

जैसे भगवान प्रेम के भूखे बताए जाते हैं, मोदी जी बस विदेशी अवार्ड के भूखे हैं। छोटा-बड़ा नहीं देखते हैं, न देने वाले देश में और न मिलने वाले अवार्ड में। और क्यों देखें छोटा-बड़ा? आखिर, तमगा सोने का हो, चांदी का हो, पीतल का हो, मोदी जी कुछ न कुछ तो भारत में ला ही रहे हैं। हम तो कहेंगे कि वे भारत के गौरव के विरोधी हैं, जो मोदी जी के अवार्डों को देने वाले देश के आकार या अवार्ड के क्रमांक के हिसाब से नापने की कोशिश करते हैं। मोदी जी पक्के जनतंत्रवादी हैं, उनका नजरिया एकदम स्पष्ट है ; जब चुनाव में सारा महत्व संख्या का होता है, तो क्या विश्व सम्राट के चुनाव में अवार्डों की संख्या का ही महत्व नहीं होगा?

(राजेन्द्र शर्मा वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)


2. छप्पन इंची जी की संघर्ष गाथा : विष्णु नागर

भाजपा को चूंकि इस सदी का सबसे बड़ा ड्रामेबाज उपलब्ध है, तो उसके लिए हर घटना, हर प्रसंग महज़ एक ड्रामा है। आपातकाल के पचास वर्ष पूरे होने का दिन, 25 जून भी एक ड्रामाई दिन था। छप्पन इंची जी को राहुल गांधी से बेहद खतरा महसूस होता है, इसलिए ड्रामा करना जरूरी था, वरना रास्ता तो छप्पन जी का भी वही है, जो आपातकाल में इंदिरा गांधी का था बल्कि उससे भी बहुत अधिक खतरनाक है और 11 साल से मुसलसल उसी पर चल रहै हैं।

तो 25 जून को छप्पन इंची जी चोला बदलकर लोकतांत्रिक हो गए थे। उन्हें कुछ भी होने और बनने में समय नहीं लगता। जैसे दिन में वह छह ड्रेस बदलते हैं, उसी तरह एक दिन में वह बारह तरह की बात कहने में उस्ताद हैं। विचार भी उनके लिए कुर्ता -पजामा और जैकेट है।

तो उस दिन कई काम किए गए। कैबिनेट की बैठक हुई कि आपातकाल विरोधी प्रस्ताव पारित करना है। लोकतंत्र और संविधान की दुहाइयां दी गईं। इसे ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाकर अपने को संविधान का रक्षक बनाया। अमित शाह से लेकर छुटभईयों तक ने आपातकाल की उस दिन खूब मलामत की और मोदी जी ने आपातकाल पीड़ितों के परिवारजनों से अपने अनुभव साझा करने को कहा। और इस तरह यह ड्रामा शाम से पहले खत्म हुआ।उसके बाद नया अभियान शुरू हुआ कि संविधान से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द हटाओ। देश को हिंदू राष्ट्र बनाओ।

मोदियों और शाहों को अगर उस दिन आपातकाल की बहुत ही याद आ रही थी, तो उन्हें यह भी तो स्मरण होगा कि जिस संघ पर इंदिरा गांधी ने प्रतिबंध लगाया था, उसी के प्रमुख बालासाहेब देवरस प्रधानमंत्री जी की चिरौरियां कर रहे थे। चिट्ठियों पर चिट्ठियां लिख रहे थे। संजय गांधी से भी मिलने के लिए छटपटा रहे थे। यहां तक कह रहे थे कि हमारा कोई संबंध जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से नहीं है। बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन कर रहे थे। नसबंदी तक को अपना समर्थन दिया था — खासकर मुसलमानों की! हार-थककर देवरस जी ने विनोबा भावे से भी चिरौरी की थी कि इंदिरा जी आपसे मिलने पवनार आश्रम आ रही हैं, तो जरा उनसे संघ के बारे में भ्रम दूर कर दीजिएगा। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए रायबरेली से इंदिरा गांधी के चुनाव को वैध‌ ठहराया, तब भी संघ प्रमुख ने इसकी ताईद की। आपातकाल के बाद 1975 में स्वतंत्रता दिवस पर इंदिरा गांधी ने लालकिले से जो राष्ट्र को संबोधन किया, उसे भी उन्होंने ‘संतुलित’ और ‘समयानुकूल’ बताया, मगर इनमें से कोई भी तरकीब काम नहीं आई। सब फेल हो गईं। अपने पिता की तरह इंदिरा जी संघ का चरित्र खूब जानती थीं। तो आपातकाल के विरोध में भाजपा की मातृसंस्था का यह महान योगदान था, जिस पर मोदी जी को गर्व है!

और भी सुनिए। इनकी पार्टी के एक बड़े नेता तो आपातकाल को अस्पताल में आराम फरमाकर बिताया।इनके अधिकतर कार्यकर्ता भी एक-दो महीने में माफी मांगकर छूट गए और अब अनेक राज्यों में दस से बीस हजार तक पेंशन पा रहे हैं। इनके नेता जरूर जेल में रहे, मगर ठाठ से राजनीतिक कैदी की तरह। मोदी जी से उम्र में छोटे, मगर बाद में उनके परम मित्र रहे अरुण जेटली जी तथा उनके वरिष्ठ मंत्री राजनाथ सिंह भी तब जेल गए थे, मगर मोदी जी कभी नहीं गए। दूसरों को भिजवाते हैं, मगर खुद एक बार भी नहीं गए।

मगर आज बताया जा रहा है कि आपातकाल से लड़ने वाला असली शूरवीर अगर तब कोई था, तो मोदी जी थे!मोदी जी के बायोडाटा में एक यह कमी रह गई थी, वह भी अब पूरी हो गई है। वैसे तो वह बीए-एमए भी हैं, मगर किस तरह हैं,सब जानते हैं।

किसी दिन अगर उनके बायोडाटा में यह भी शामिल हो जाए कि उन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी थी, तो भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह नान बायोलॉजिकल हैं! जो नान बायोलॉजिकल राम जी को ऊंगली पकड़कर अयोध्या के मंदिर में ला सकता है, वह कभी भी, कहीं भी, कुछ भी हो सकता है!

छप्पन इंची जी की आपातकाल की कथित संघर्ष गाथा पर एक पूरी किताब अंग्रेजी में आई है, जिसका नाम है- ‘द इमर्जेंसी डायरीज़ — ईयर्स दैट फोर्ज्ड अ लीडर’। मतलब आपातकाल ने ही हमें मोदी जैसा महान नेता दिया। अभी तो पूरी बात सामने आई नहीं है, मगर जब आएगी, तो यह पुस्तक भी ‘बाल नरेन्द्र’ साबित होगी।इसके अलावा कुछ हो भी नहीं सकती। जिस वीर बालक ने मगरमच्छों के बीच से नदी में पड़ी गेंद निकाल ली थी और जो मगरमच्छ के बच्चे को घर ले आया था, वह बच्चा आगे चलकर इससे भी अधिक वीर साबित होना ही है, यह स्पष्ट है। तभी तो वह प्रधानमंत्री के रूप में छप्पन इंच सीने की गति को प्राप्त हुए!

यह किताब अंधभक्तों की अंधभक्ति में कितनी वृद्धि करेगी, यह तो नहीं मालूम, मगर जिनकी आंखें हैं और खुली हैं, उन्हें अगले अनेक वर्षों के लिए मनोरंजन की नयी सामग्री उपलब्ध करवाएगी। अमित शाह ने जो थोड़ा-बहुत इस बारे में बताया है, वह यह है कि छप्पन इंची जी, तब तरह-तरह के भेस बदलकर आपातकाल के पीड़ितों के परिवारों की मदद करते थे। वह कभी साधु बन जाते थे, कभी सरदार जी, कभी अगरबत्ती विक्रेता, तो कभी हिप्पी! जिसने प्रधानमंत्री बनकर भी अपने अलावा किसी की मदद नहीं की, वह आपातकाल में इतना बहादुर होने के साथ इतना परम जन हितैषी रहा होगा, इस पर तो आज के बच्चे भी मुश्किल से विश्वास करेंगे, क्योंकि वे इस उम्र में हमारी-आपकी तरह गावदू नहीं हैं। बहुत स्मार्ट हैं और ऐसे -ऐसे सवाल करते हैं कि अच्छों-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं। अच्छों-अच्छों में माननीय जी भी शामिल हैं।

(कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर साहित्यकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

यह खबर /लेख मेरे ( निशाकांत शर्मा ) द्वारा प्रकाशित किया गया है इस खबर के सम्बंधित किसी भी वाद - विवाद के लिए में खुद जिम्मेदार होंगा

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