
जून 2025 में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) की वार्षिक बैठक में एक बार फिर भारत की संगठित कूटनीतिक पहल को गहरी ठेस पहुँची। भारत ने FATF के समक्ष पाकिस्तान को दोबारा ग्रे सूची में शामिल करने की अपील की थी, विशेषकर पहलगाम हमले जैसे हालिया आतंकी घटनाओं को आधार बनाकर, लेकिन वैश्विक समुदाय ने इस अपील को सिरे से नकार दिया।
यह केवल एक निर्णय भर नहीं है — यह उस गिरते हुए वैश्विक विश्वास का प्रतीक है, जो भारत की विदेश नीति पर कभी था।
FATF का निर्णय: आतंकवाद की निंदा, पर पाकिस्तान का नाम नहीं
FATF ने स्वीकार किया कि पहलगाम में हुआ आतंकी हमला चिंताजनक है, और इस प्रकार की घटनाएं बिना वित्तीय समर्थन के असंभव हैं। लेकिन इसके बावजूद FATF ने पाकिस्तान को आतंकवाद का प्रायोजक मानने से इनकार कर दिया।
क्या यह एक रणनीतिक विफलता नहीं कि विश्व की आतंकवाद-विरोधी संस्था में भी भारत पाक प्रायोजित आतंकवाद का न्यायसंगत प्रमाण प्रस्तुत करने में विफल रहा?
भारत की कूटनीतिक मेहनत निष्फल:
भारत के 51 सांसदों ने विश्व के 31 देशों में जाकर एक संगठित दबाव अभियान चलाया। फिर भी परिणाम यह हुआ कि —
- जापान, जो भारत का रणनीतिक मित्र रहा है, उसने भारत का विरोध किया।
- साइप्रस, जिसने हाल ही में प्रधानमंत्री को सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया, वह भी पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा हुआ।
- और अमेरिका — जिसके साथ भारत QUAD जैसे मंच पर सहयोग करता है — उसका एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी कहता है कि “आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान अमेरिका का सबसे विश्वसनीय सहयोगी है।”
क्या यह भारत की विदेश नीति की प्रभावहीनता और अपरिपक्वता का संकेत नहीं है?
‘विरोध हुआ’ — क्या यही उपलब्धि है?
भारतीय मीडिया का एक वर्ग — विशेषतः “गोदी मीडिया” — इस बात का ढोल पीट रहा है कि FATF ने “घटना की निंदा” की। लेकिन इस विरोध में पाकिस्तान का नाम तक नहीं लिया गया।
यह विरोध उसी प्रकार है जैसे कोई घर जलाकर चला जाए और पुलिस सिर्फ कहे कि “घटना गंभीर है”, लेकिन आरोपी को नामजद करने से कतराए। यदि यह हमला पाकिस्तान प्रायोजित नहीं था, तो फिर कौन प्रायोजक है? यह सवाल भारतीय मीडिया में क्यों नहीं उठाया जा रहा?
अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में भारत की गिरती विश्वसनीयता:
- IMF ने पाकिस्तान को कर्ज दिया,
- World Bank ने राहत दी,
- एशियन डेवलपमेंट बैंक ने समर्थन दिया,
- और अब FATF ने ग्रे लिस्ट से नाम हटाकर उसे दूध में धोया हुआ घोषित कर दिया।
इन सबके बीच भारत एक विरोध करता, लेकिन प्रभावहीन राष्ट्र बन कर रह गया है।
भारत की विदेश नीति: शैली अधिक, परिणाम न्यून
आज भारत के विदेश मंत्री दुनिया भर में घूम-घूम कर “मजबूत विदेश नीति” का दावा करते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि उनका रवैया जुमलेबाज़ी, आत्मश्लाघा और आक्रामक बयानों तक सीमित है। न तो भारत का नैतिक दबाव बन रहा है, न रणनीतिक समर्थन।
हमने रणनीति में गंभीर चूक की है:
- पाकिस्तान को आतंकवाद से जोड़ने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाणों का संकलन और प्रस्तुतीकरण कमज़ोर रहा।
- भारत ने बहुपक्षीय मंचों पर मित्रों को साथ लाने में असफलता पाई।
- घरेलू मीडिया को प्रोपेगेंडा बनाकर हमने विदेश नीति के यथार्थ से मुँह मोड़ लिया।
आत्ममंथन का समय
यह केवल पाकिस्तान की ग्रे सूची से हटने की बात नहीं है। यह भारत के अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक हैसियत में धीरे-धीरे हो रही गिरावट का दस्तावेज़ है।
हमें अब यह स्वीकार करना होगा कि अगर हम वैश्विक मंचों पर नीति आधारित, प्रमाण आधारित और सहयोग आधारित कूटनीति नहीं अपनाते, तो हम केवल तालियां पीटने और विरोध कराने तक सीमित रह जाएंगे — और दुनिया हमारे मुद्दों को गंभीरता से लेना बंद कर देगी।
यह समय भाषणों से निकलकर रणनीतिक योजना पर आने का है — नहीं तो हम सिर्फ “मूल्य आधारित विदेश नीति” की बात करते रहेंगे और वास्तविक निर्णय दूसरे देश लेते रहेंगे।सोजन्य से