
वक्फ के साये में सिकुड़ती जमीन: आस्था, अधिकार और एक जटिल कानूनी पेंच
तमिलनाडु से आ रही खबरें मन में कई सवाल खड़े करती हैं। वेल्लोर के एक गाँव में 150 परिवारों को अपनी जमीन खाली करने का नोटिस, 1500 साल पुराने मंदिर पर वक्फ बोर्ड का दावा – ये घटनाएं सिर्फ जमीन के टुकड़े से जुड़े विवाद नहीं हैं, बल्कि आस्था, अधिकार और एक जटिल कानूनी पेंच की ओर इशारा करती हैं, जो आधुनिक भारत में भी मध्ययुगीन छाया की तरह मंडरा रहा है।
यह विडंबना ही है कि जिस देश में संपत्ति के अधिकार को मौलिक माना जाता है, वहां पीढ़ियों से काबिज परिवारों को अचानक अपनी जमीन छोड़ने या किराया देने का फरमान सुना दिया जाए। तमिलनाडु के कट्टुकोलै गाँव के इन 150 परिवारों के लिए यह सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं, बल्कि उनकी आजीविका का एकमात्र सहारा है। उनकी आशंका स्वाभाविक है कि यदि यह जमीन वक्फ की घोषित हो जाती है, तो उनके भविष्य पर अंधेरा छा जाएगा।
कांग्रेस विधायक हसन मौलाना का बयान इस पूरे मामले को और उलझा देता है। एक तरफ वे ग्रामीणों को हटाने से इनकार करते हैं, वहीं दूसरी तरफ यह कहकर कि “एक बार जो जमीन वक्फ की हो गई, वो सदा के लिए वक्फ की ही रहती है,” वे कानूनी बाध्यता की ओर इशारा करते हैं। यह बयान वक्फ कानून की उस कठोरता को दर्शाता है, जिसके तहत एक बार यदि कोई संपत्ति वक्फ में दर्ज हो जाती है, तो उसके स्वामित्व को चुनौती देना बेहद मुश्किल हो जाता है।
सैयद सद्दाम का दावा, जिसके अनुसार 1954 से यह संपत्ति वक्फ की है, कानूनी पेचीदगियों की ओर इशारा करता है। उनके पिता द्वारा कथित तौर पर किराया न वसूलना और अब इसे ‘पुरानी गलती’ बताकर सुधारने की कोशिश करना, कहीं न कहीं वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन में व्याप्त अस्पष्टता और संभावित दुरुपयोग को उजागर करता है। दो और नोटिस के बाद हाईकोर्ट जाने की धमकी, ग्रामीणों पर दबाव बनाने की रणनीति लगती है।
लेकिन इस पूरे प्रकरण का सबसे चौंकाने वाला पहलू है 1500 वर्ष पुराने मंदिर पर वक्फ बोर्ड का दावा। यह न केवल ऐतिहासिक तथ्यों को चुनौती देता है, बल्कि धार्मिक भावनाओं को भी ठेस पहुंचाता है। जिस कालखंड में इस्लाम का उदय भी नहीं हुआ था, उस समय के मंदिर की संपत्ति पर वक्फ का दावा किस आधार पर किया जा सकता है? यह घटना वक्फ संपत्तियों के पंजीकरण की प्रक्रिया और उसकी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठाती है। थिरुचेंथुरई गाँव के निवासियों का यह सवाल कि क्या मंदिर की 369 एकड़ संपत्ति भी वक्फ बोर्ड की है, एक वैध और महत्वपूर्ण प्रश्न है। राजस्व विभाग को अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) के लिए लिखा गया पत्र, वक्फ बोर्ड की व्यापक पहुंच और प्रशासनिक प्रक्रियाओं पर उसके प्रभाव को दर्शाता है।
यह घटनाएं ऐसे समय में सामने आ रही हैं जब वक्फ संशोधन विधेयक पारित हो चुका है। इस विधेयक का उद्देश्य वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन को बेहतर बनाना और अवैध दावों को रोकना था। लेकिन तमिलनाडु में सामने आ रहे ये मामले बताते हैं कि कानून बनने के बावजूद जमीनी स्तर पर चुनौतियां अभी भी बरकरार हैं।
यह विचारणीय है कि क्या वक्फ कानून, जिसका उद्देश्य धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्तियों का संरक्षण करना है, कहीं आम नागरिकों के अधिकारों का हनन तो नहीं कर रहा है? क्या ऐसी कोई व्यवस्था होनी चाहिए जिससे पीढ़ियों से काबिज परिवारों और सदियों पुराने धार्मिक स्थलों के अधिकारों की रक्षा की जा सके?
तमिलनाडु में वक्फ बोर्ड के ये दावे एक बड़े सवाल को जन्म देते हैं: आस्था और कानून के बीच, अधिकार किसका सर्वोपरि है? यह सिर्फ जमीन का विवाद नहीं है, बल्कि यह उस नाजुक संतुलन की परीक्षा है जो भारत के बहुलवादी समाज की नींव रखता है। सरकार और न्यायपालिका को इस मामले में निष्पक्ष और संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाते हुए यह सुनिश्चित करना होगा कि न केवल कानून का पालन हो, बल्कि आम नागरिकों की आजीविका और सदियों पुरानी आस्था का भी सम्मान किया जाए। अन्यथा, वक्फ का साया न केवल जमीन को सिकुड़ता जाएगा, बल्कि लोगों के दिलों में भी आशंका और अविश्वास पैदा करेगा।