20 अगस्त यानिकि आज को दुनिया में मच्छर दिवस मनाया जाता है

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20 अगस्त यानिकि आज को दुनिया में मच्छर दिवस मनाया जाता है

सवा सौ साल पहले की बात है। अल्मोड़ा में जन्मे एक अंग्रेज सर्जन मच्छरों को खूब परखा करते थे। उन दिनों कुनैन का प्रयोग खूब होता था, पर मलेरिया की वजह से हर साल हजारों लोग मारे जाते थे। अंग्रेज सर्जन को पता था कि मलेरिया के अध्ययन के लिए भारत सबसे मुफीद है, क्योंकि यहां कुछ मौसमों में मच्छरों की बहार रहती है। शाम होते ही कानों के पास मच्छरों का शैतानी संगीत गूंजने लगता है। भले उनका संगीत एक जैसा हो, पर मच्छर कई प्रकार के होते हैं। वह सर्जन भी सिकंदराबाद की अपनी प्रयोगशाला में उन दिनों खूब मच्छर पाला करते थे, उन पर शोध करते थे। मानसून से तरबतर जुलाई का महीना चल रहा था, प्रयोगशाला में 20 वयस्क भूरे मच्छर पल रहे थे। मलेरिया के एक मरीज हुसेन खान को खोजकर मुश्किल से तैयार किया गया था, कहा गया कि मच्छरों से कटवाने के पैसे दिए जाएंगे। वयस्क मच्छर उस पर छोड़े गए, हुसेन खान ने उन्हें काटने और खून पीने दिया, जिसके लिए कुल आठ आने का भुगतान हुआ। सेवकों ने खून पीने वाले मच्छरों को घेरकर पकड़ा और फिर परखनली में बंद कर दिया। परखनली में कुछ बूंद पानी रखा गया और उसके मुंह को रुई के छोटे फाहे से बंद कर दिया गया। एकाध मच्छर यूं ही मर गए, सर्जन ने बाकी मच्छरों की चीरफाड़ शुरू की, ताकि उनके शरीर में मलेरिया विषाणु का पता लगाया जा सके।

20 अगस्त, 1897 को पांचवां दिन था और प्रयोगशाला में एक ही मच्छर शेष था। मच्छरों पर लगातार गड़ी आंखें थकने लगी थीं। सामने एक बहुत भयानक हल्के भूरे रंग का, चितकबरे पैर, लंबी सूंड या डंक और पतली काली पट्टियों वाले पंखों वाला मच्छर था। सर्जन ने बहुत सावधानी से उसका विच्छेदन किया। मन दुखी हो रहा था कि कम से कम हजार मच्छर तो खोज की भेंट चढ़ चुके थे। जब उस आखिरी मच्छर का विच्छेदन किया, तो पूरी सावधानी से परखा। वह सर्जन उसके प्रत्येक माइक्रोन को ऐसी सतर्कता से खोज रहे थे, जैसे कोई एक छोटे से छिपे खजाने के लिए किसी विशाल खंडहर महल को खंगालता है। शायद यह मच्छर भी कोई सुबूत देकर नहीं जाएगा। पहली नजर में कुछ नहीं दिखा, लेकिन जब गौर किया, जो पेट में एक अजीब संरचना नजर आई। माइक्रोस्कोप की मदद से और परखा, सामने दिख रही 12 कोशिकाओं में छोटे-छोटे दानों का समूह था। वह काले रंग के मलेरिया परजीवी थे, जो मच्छर के पेट में पल रहे थे।

मानव जाति के लिए वह निर्णायक क्षण था, सर्जन ने खुशी से अपने सहायक को पुकारा। उन्हें शक भी हुआ कि कहीं जादूगरनी प्रकृति उनके साथ कोई खेल तो नहीं खेल रही है, पर उन्होंने बार-बार देखा और अपने नोटबुक में उस परजीवी को आकृति के साथ दर्ज किया। उन्होंने उसी दिन अपनी पत्नी के नाम एक कविता लिखी, जिसमें खुशी का इजहार किया – आज के दिन खुश हैं ईश्वर/ मेरे हाथ पर रख दी है/ एक अद्भुत चीज;/ और भगवान की करो स्तुति/ जिनके आदेश पर/ जिनके गुप्त कारनामों की खोज में/ आंसुओं और भारी सांसों के साथ।/ मुझे तुम्हारे धूर्त बीज मिल गए हैं/ हे लाखों हत्यारों वाली मौत!/ अब यह छोटी सी बात मुझे पता है/ अब बचेंगे असंख्य लोग,/ ऐ मौत, कहां हैं तुम्हारे डंक ?

सर्जन रोनाल्ड रॉस ने दुनिया को बता दिया कि वास्तव में मच्छर के काटने से ही मलेरिया होता है, मच्छर काटता है और मलेरिया के परजीवी विषाणु मानव शरीर में घर बनाकर जानलेवा हमला करते हैं। आज इंसानी सभ्यता उनकी कर्जदार है, उन्होंने मलेरिया के खिलाफ जंग में इंसानों की फतह के लिए रास्ता तैयार किया था। रोनाल्ड रॉस (1857-1932) को इस खोज के लिए 1902 में नोबेल सम्मान से नवाजा गया। जिस दिन उन्होंने मलेरिया परजीवी की खोज की थी, उस दिन 20 अगस्त को दुनिया में मच्छर दिवस मनाया जाता है। कवि मन वाले रॉस पूरा श्रेय माइक्रोस्कोप को देते हुए अक्सर मजाक करते थे कि पनामा नहर को भी माइक्रोस्कोप से खोदा गया था।
पता नहीं, इंसानी रक्त पीने वाले ड्रैकुला वास्तव में होते भी हैं या नहीं, पर मच्छरों को गौर से देखा जाए, तो वे ड्रैकुला के ही वंशज नजर आते हैं। वैसे सारे मच्छर ड्रैकुला नहीं होते हैं, अगर सारे मच्छर ड्रैकुला होते, तो इंसानों का दुनिया में जीना मुहाल हो जाता। हालांकि, दुनिया में आदिकाल से ही वैद्यों, हकीमों को मच्छरों पर बहुत शक रहा था कि मच्छर न जाने कितनी बीमारियां फैलाते हैं। इसीलिए मच्छरों पर इंसानों की गिद्धदृष्टि हमेशा से रही है, मगर जब माइक्रोस्कोप आ गया, तब उसकी मदद से मच्छर इंसानों की और पैनी निगाहों में चढ़ गए।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

यह खबर /लेख मेरे ( निशाकांत शर्मा ) द्वारा प्रकाशित किया गया है इस खबर के सम्बंधित किसी भी वाद - विवाद के लिए में खुद जिम्मेदार होंगा

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