पहाड़ी इलाकों में बने बहुमंजिले भवन एक-एक करके ताश के पत्तों की तरह ढह रहे हैं

पहाड़ी इलाकों में बने बहुमंजिले भवन एक-एक करके ताश के पत्तों की तरह ढह रहे हैं

अनियोजित विकास की कितनी बड़ी कीमत पहाड़ चुका रहे हैं। पहाड़ी इलाकों में बने बहुमंजिले भवन एक-एक करके ताश के पत्तों की तरह ढह रहे हैं और लोगों की जान ले रहे हैं। शिमला में ही एक मंदिर पर जिस तरह से भूस्खलन का मलबा गिरा, वह बताने के लिए काफी है कि हमें अब तो संभल ही जाना चाहिए।

इन सबकी शुरुआत मानसून में हुई। हिमाचल प्रदेश में पिछले महीने जुलाई के पहले पखवाड़े में हुई भयानक बारिश ने भी जान-माल की बड़ी क्षति पहुंचाई थी। उस वक्त दो मुख्य सड़कें- चंडीगढ़-शिमला फोरलेन और चंडीगढ़-मनाली फोरलेन कई दिनों तक बंद रहीं। अब भी वे बस कामचलाऊ हालत में ही हैं। दरअसल, विकास के नाम पर जो मॉडल अपनाया गया, उसके नतीजे अब दिखने शुरू हो चुके हैं। पहले तो शिमला जैसे सुंदर पहाड़ी कस्बे की जमीनें भू-माफिया और प्रशासन की मिलीभगत से भोले-भाले लोगों को रिहाइशी मकान के लिए बेच दी गईं, जबकि वे भवन के लिए उपयुक्त थीं ही नहीं। फिर कच्ची जमीनों पर कंक्रीट के पीलर पर बहुमंजिले भवन बनाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह लगातार बढ़ता गया। कहीं होटल बने, तो कहीं निजी मकान। सरकार चाहे किसी भी दल की रही, किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। एक प्रोफेसर मित्र ने कर्ज लेकर फ्लैट लिया, लेकिन उसमें भी अब दरारें आ गई हैं और उसे खाली करवा दिया गया है। कई लोग सड़कों पर रात गुजारने को मजबूर हैं। इसी तरह, सरकारों ने कनेक्टिविटी बेहतर करने के नाम पर सड़कों का जाल फैला दिया। इसके लिए बड़े-बड़े पहाड़ बेतरतीब काटे गए। नतीजतन, कच्चे पहाड़ अब सेटल होने का नाम नहीं ले रहे, और जहां-तहां भरभराकर गिर रहे हैं।

जाहिर है, हमें पहाड़ के अनुकूल शहरों और कस्बों का निर्माण करना चाहिए। बड़े पहाड़ी शहरों से आबादी का दबाव कम करने के लिए छोटे-छोटे कस्बे विकसित करने चाहिए। गांवों में सुविधाओं का बढ़ना भी जरूरी है, ताकि ग्रामीणों का शहरों में पलायन न हो। शिमला को राजधानी के दबाव से मुक्त कर देना चाहिए, और इसे सिर्फ एक पर्यटन केंद्र बना देना चाहिए। फोरलेन के बजाय छोटी सड़कों या रेलवे लाइन बनाकर कनेक्टिविटी बढ़ाने पर जोर देना चाहिए। स्पष्ट है, पहाड़ों का इस्तेमाल हमें पूरी संवेदनशीलता के साथ करना होगा, तभी शिमला जैसी दर्दनाक घटनाओं पर लगाम लग सकती है।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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