जस्टिफिकेशन” और “कन्फेशन”… पश्चिमी संसार में यह दो शब्द बड़े बलवान हैं… और इन्ही दो शब्दो के बीच झूलती हुई एक अमेरिकन कहानी का नाम है “ओपन हायमर”..!

“जस्टिफिकेशन” और “कन्फेशन”… पश्चिमी संसार में यह दो शब्द बड़े बलवान हैं… और इन्ही दो शब्दो के बीच झूलती हुई एक अमेरिकन कहानी का नाम है “ओपन हायमर”..!

११ सितंबर १८९३… अमेरिका के शिकागो में आयोजित “विश्वधर्म सम्मेलन” का विराट कक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था.. वहां मंच पर खड़ा एक श्यामल भारतीय बंगाली युवक भारतीय धर्म की उदारता, सहिष्णुता और स्वीकार्यता को गीता के सूत्र से स्पष्ट करते हुए निर्भीक बोल रहा था…मानो वह इस मंच से विश्व को भारत के धर्म ध्वज के नीचे आने को सप्रेम निमंत्रित कर रहा हो.. जिसे सारा बौद्धिक यूरोप और अमेरिका चौंक कर सुन रहा था।

१६ जुलाई १९४५ दुनिया के पहले परमाणु बम “ट्रिनिटी” (त्रिशक्ति) के परीक्षण के पश्चात इस विनाशकारी अस्त्र के जनक “रॉबर्ट ओपन हाईमर” ने आश्चर्यचकित हो कर अनायास गीता के इस श्लोक को दोहराया —

“दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद् भासस्तस्य महात्मनः॥१२॥”

(आकाशमें हजार सूर्योंके एक साथ उदय होनेसे उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्वरूप परमात्माके प्रकाशके सदृश कदाचित् ही हो)
तथा –

“कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।…॥३२॥”

(श्रीभगवान् ने कहा — मैं लोकों का नाश करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ। इस समय, मैं इन लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हूँ।)

“क्रिस्टीफॉर नोलिन” की इन दिनों रिलीज हुई हॉलीवुड फिल्म “ओपन हाइमर” में गीता का एक श्लोक नायक पहली बार अपनी साम्यवादी प्रेयसी के साथ सहवास करते हुए दोहराता है तथा दूसरी बार तब जब “ट्रिनिटी परमाणु परीक्षण” होता है।

“मैक्समूलर” ने जब भारतीय वैदिक शास्त्रों को (जिन्हें वो गड़ेरियों के गीत भी समझता था कई बार) पश्चिम से जोड़ा तो बंगाल समेत कई क्षेत्रों में उसकी प्रशंसा हुई.. स्वामी विवेकानंद जैसे लोग भी उसे “मोक्षमूलर” पुकारने लगे थे (पता नहीं क्यों)… किंतु अनेक भारतीय पंडितों को यह भी स्पष्ट था उस समय की मैक्समूलर का यह कार्य पश्चिम को बलवान और भारत को कमज़ोर करेगा जिसका अर्थ है “विनाश”..!

“एडोल्फ हिटलर” जिसे बहुतायत में एक तानाशाह कहा जाता है (जिस पर एक बड़ी बहस ज़रूरी है) उसने जर्मनी में “महान राष्ट्रवाद” की लहर पैदा कर के वहां के “जर्मन अभिमान” को इतना भड़काया की आने वाले समय में यह अभिमान जर्मनी में रहने वाले “शक्तिशाली अल्पसंख्यक वर्ग” अर्थात यहूदियों के प्रति घोर घृणा और हिंसा में परिवर्तित होता चला गया… जिसका परिणाम हुआ “होलोकॉस्ट” (१९३३ से १९४५) जिसमें लगभग ६० लाख यहूदियों की हत्या (जिसमें १५ लाख बच्चे शामिल थे) की गई… और लाखों यहूदियों का पलायन हुआ… जिसमें से अधिकतर बुद्धिमान (कवि, वैज्ञानिक और धनिक) यहूदियों ने अमेरिका और रूस जैसी महाशक्तियों को अपना नया ठिकाना बनाया.. और इस प्रकार “यहूदी समझ और कुशाग्रता” को यूरोप से दूर और लाखों निर्वासितों (जिनमें अधिकतर अपराधी होते थे)द्वारा बसाए गए (या यूं कहें कि मूल निवासियों को उजाड़ कर छीने गए) “नए राष्ट्र अमेरिका” में संग्रक्षण मिला… यहूदियों के लिए यह “संस्कृति और इतिहास विहिन राष्ट्र” (क्यों की नए अमेरिका में पुराने लोग गुलाम थे और पुराना धर्म नष्ट कर दिया गया था लोगों को ईसाई या नास्तिक बना कर) अत्यंत आकर्षक और काम का सिद्ध हुआ… क्यों की यहूदी संस्कृति मूलतः पूंजीवादी रही है और अमेरिका भी पूंजीवादी राष्ट्र है… जहां इंसान या समाज से ऊपर है “आर्थिक संपत्ति”…!

द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य जब लगभग पूरा संसार(ऐच्छिक और अनैछिक रूप से) सत्तालोलुपता की हिंसा में निमग्न था… उस समय लोकतंत्र और आधुनिकता का ध्वज उठाए संयुक्त राज्य अमेरिका दूरदर्शन कर रहा था… किन्तु यहूदियों के जर्मनी और यूरोप से निकल कर अमेरिका पहुंचने के साथ ही साथ अमेरिका भी इस युद्ध का हिस्सा बनने लगा… नए अमेरिका के मूल चरित्र में “अवसरवाद” और “उपभोक्तावाद” रचा बसा हुआ है… अतः उसने अपने आप को बहुत जल्द युद्ध में आकाशीय प्रवेश देने की योजना बनानी शुरू कर दी… वह चाहता था की वह इस दुर्भाग्यपूर्ण अवसर (विश्वयुद्ध) को अपने सौभाग्य में बदल कर यूरोप और एशिया से विश्व नेतृत्व छीन ले… और इसके लिए वह परमाणु अस्त्रों के निर्माण में तल्लीन हो जाता है… ५० के दशक में लगभग २ अरब डॉलर से भी अधिक का खर्च कर के अमेरिका सबसे पहले इस अनुष्ठान को पूरा करता है और मानवीय बुद्धि के क्रूरतम प्रयोगों में एक “लिटल बॉय” और “फैट मैन” (परमाणु बमों के नाम जो जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में गिराए गए जिनमें लगभग ३लाख निर्दोष लोगों की हत्या हुई) को सिद्ध करते हुए विश्व पर अपनी दादागिरी स्थापित कर दी!… मानवीय इतिहास में यह “चंगेजी अत्याचार” के पश्चात सबसे बड़ा अत्याचार कहा जा सकता है(यद्धपि चेंगेज भी युद्ध की ललकार के साथ प्रवेश करता था जबकि परमाणु बम तो सोए हुए मासूमों पर गिरा) परन्तु ओपनहायमर समेत तमाम अमेरिका इसे “शांति का अंतिम प्रयास” मानता है(हास्यास्पद ढंग से)… जबकी हम सब जानते हैं की उस एक परमाणु विस्फोट का परिणाम लगभग आधी शताब्दी तक जापान के उन दो शहरों और उसके आसपास के क्षेत्र में देखने को मिला… एक अनुमान से लगभग ४०००° का तापमान उत्पन्न करने वाले उस भयानक बम से ८० हज़ार लोग तो तुरंत ही पिघल गए.. लेकिन लाखों लोग बाद के वर्षो में कैंसर जैसी भयानक बीमारियों से तड़प तड़प कर मरते ही रहे(६० के दशक में इस विपदा पर भारत में राजेंद्र कुमार अभिनीत फिल्म “अमन” का निर्माण हुआ था जिसे आपको देखना चाहिए) और आज भी कुछ हद तक उसका प्रभाव देखने को मिलता है… फिर भी इसे “आतंकी घटना” ना मान कर केवल “युद्ध की दुर्घटना” की संज्ञा दी जाती है जो “संयुक्त राष्ट्र” जैसी संस्थाओं के अस्तित्व पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है और एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है “मानवता वादी पत्रकारों और इतिहासकारों” पर भी।

हमको यह भी याद रखना चाहिए कि परमाणु विभीषिका झेलने के बाद जापान ने परमाणु शक्ति के शांतिपूर्ण इस्तेमाल और कभी परमाणु बम नहीं बनाने का संकल्प लिया परन्तु विश्व के अन्य देशों में परमाणु बम बनाने की होड़ अब भी जारी है तथा प्रत्येक वर्ष परमाणु हथियारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है… २०२० में दुनियाभर में ३७०० से अधिक परमाणु बम में थे तो २०२१ में ये बढ़कर ३८२५ हो गए… अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान, इस्राइल और उत्तर कोरिया परमाणु रेस में अव्वल माने जाते हैं जो निरंतर अपनी विनाशक क्षमता को बढ़ाते जा रहे हैं… और यह सब शांति और सुरक्षा के नाम पर हो रहा है।

“यहूदी – ईसाई विचारधारा” में पश्चाताप और प्रायश्चित का बड़ा महत्व है… अतः हमें लगभग पूरा का पूरा पश्चिमी साहित्य और सिनेमा इसके मध्य दोलन करता दृष्टिगोचर होता है। “शेक्सपियर” से लेकर “ब्राउन” तक सभी अपने इतिहास और वर्तमान पर प्रायः प्रायश्चित या पश्चताप करते मिलते हैं और यही कार्य करती है “नोलीन” की यह कमाल की फिल्म! इस फिल्म में सब कुछ कमाल का है… इस फिल्म की एक ओर की सच्चाई के करीब खड़ी की कहानी, तीन आयामों में टहलती पटकथा, कमाल की “सिनेमेटोग्राफी”, रोमांचक संगीत, विस्तार में किया गया संपादन, अनोखे संवाद और लाजवाब अभिनय साथ में अत्यंत सधा हुआ और मेधावी निर्देशन और फिल्म का अंतिम दृश्य तो कमाल का दार्शनिक बन पड़ा है… यह सब मिल कर “ओपन हाइमर” को एक सार्वकालिक श्रेष्ठ सिनेमा की सूची में ला खड़ा करते हैं(यद्धपि सामान्य दर्शकों के लिए यह फिल्म झेलाऊ या वृत्तचित्र भर बन जाती है) जिसे अनेक सम्मान मिलना स्वाभाविक है।

अद्भुत अभिनेता “किलियन मर्फी” की तनावग्रस्त आँखें और घमंड से भरी चाल “पश्चिमी बौद्धिक स्तर” के उत्तम उधारण बनती हैं…”क्रिस्टीफॉर नोलिन” ओपन हाईमेर या “आंस्टिन” को “वीएफएक्स” या “मेकअप” से “री इनकॉर्न” करने के बजाय उनके चरित्रों को “उकेरने” में अधिक प्रवृत्त मिलते हैं… उनकी इस फिल्म में(जो “काई बर्ड” और “जे शेरविन” की २००५ में आयी किताब पर आधारित है) हम मानवतावाद के कई चेहरे बेनकाब होते दिखते हैं… यह फिल्म अपने नायक की तरह ही एक बड़े अपराध और अपमान को न्यायोचित ठहराने का मेधावी प्रयास बनती चली जाती है… अर्थात यदि आप पूरे इतिहास और वर्तमान को ३६०° पर नहीं समझते हैं तो आपको अंत में ओपन हाइमर से सहानभूति पैदा हो जाती है … जिसका अर्थ है आपकी सहानभूति अमेरिका से होना… पूंजीवाद से होना… अत्याचार और दंभ से होना और अंततः “यहूदी सांस्कृतिक गर्व” से भी होना है… जो बेहद खतरनाक बात है।

“सुडाको ससासी” एक छोटी सी बच्ची… रोज़ रोज़ काग़ज़ के सारस बना रही थी… उसे बहुत जल्दी थी कुल एक हज़ार सारस बनाने की… क्यों की जापानी किंवदंतियों में एक हज़ार काग़ज़ के सारस बना कर माना गया संकल्प अवश्य पूरा होता है… “ससासी” का संकल्प था उस बीमारी से मुक्त होने का जिसे ल्युकोमिया(रक्त कैंसर) कहते हैं… और जो उसे “हिरोशिमा परमाणु कांड” के पश्चात उत्पन्न रेडिएशन के दुष्प्रभाव से हुआ था तथा इतना खतरनाक था की उस नन्ही बच्ची के हज़ार सारस आकाश में उसकी दुआ ले कर उड़ते उससे पहले ही उसे निगल गया… “सुडाको” बेमौत मर गई… और छोड़ गई अपने कागज़ी सारसों का एक झुण्ड एक प्रतीक के तौर पर की यहां शांति के सारस काग़ज़ के बने हैं जबकि घृणा और लोभ के अस्त्र आग के… फिर भी आग बुझ जाती है एक समय के बाद जबकि काग़ज़ के सारस जीवित रहते हैं… और बार बार उड़ कर आकाश भर लेते हैं… क्यों की आकाश बमों को नहीं सारसों को ही अपने भीतर तैरने देता है।।

ओमा दी अक्©

(हॉलीवुड फिल्म ओपन हाईमर देखने के पश्चात की गई समीक्षा)

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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