कोरोना की तीसरी लहर के खतरे
के बीच स्कूल खोलने के खतरे

कोरोना की तीसरी लहर के खतरे
के बीच स्कूल खोलने के खतरे
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हिंदुस्तान के अलग-अलग प्रदेशों में राज्य सरकारों के फैसले से स्कूलें खुलना शुरू हो गया है। हर राज्य ने अपने-अपने हिसाब से तय किया है कि किसी एक दिन कितने फीसदी बच्चों को क्लास में बिठाया जाए, या कौन-कौन सी क्लास से शुरू की जाए, या क्लास रूम के बाहर खुले में बैठाया जाए। यह स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से प्रदेश की सरकार और शायद कहीं-कहीं पर जिले के अफसरों को भी आजादी से ऐसा तय करने का अधिकार दिया गया है। कुछ राज्यों ने यह भी तय किया है कि जिन जिलों में नए कोरोना केस एक फीसदी से भी कम सामने आ रहे हैं वहीं पर स्कूलें शुरू की जाएं। बच्चों के मां-बाप दहशत में हैं, और बच्चों के लगातार घर रहने से होने वाली तमाम किस्म की दिक्कतों के बावजूद उनको ठीक से भरोसा नहीं है कि छोटे-छोटे बच्चे शारीरिक दूरी रख पाएंगे, साफ-सफाई रख पाएंगे, और कोरोना से बच पाएंगे। इसीलिए सरकारों ने यह छूट भी दी है कि स्कूलों में कहीं भी हाजिरी जरूरी लागू नहीं की जाएगी, मतलब यह कि जो लोग अपने बच्चों को भेजना ना चाहें, वे ना भेजें, और कई राज्यों ने इसीलिए ऑनलाइन कक्षाएं जारी रखना भी तय किया है।

दूसरी तरफ निजी स्कूल चलाने वाले लोगों के सामने दिक्कत यह है कि उनके ढांचे का खर्च तो तकरीबन पूरा का पूरा हो ही रहा है। इमारत अगर बैंक कर्ज से बनी है तो उस पर किस्तें आ रही हैं, बसें अगर बैंक कर्ज से खरीदी हैं, तो उस पर किस्तें देना ही पड़ रहा है, और शिक्षक-शिक्षिकाओं और कर्मचारियों को कितना भी कम किया जाए, तनख्वाह का काफी बड़ा हिस्सा तो जा ही रहा है। फिर ऑनलाइन पढ़ाई के चलने से फीस भी पता नहीं पूरी मिल रही है या नहीं, लेकिन निजी स्कूलों को कई दूसरे तरह की कमाई भी होती है कहीं यूनिफार्म की अनिवार्यता से कमीशन मिलता है, तो कहीं निजी प्रकाशकों की किताबें अनिवार्य करके उससे कमीशन मिलता है, वह सब बंद सा हो गया है। इसलिए निजी स्कूलों को स्कूल शुरू करने की हड़बड़ी अधिक थी, और सारे प्रदेशों में ऐसे स्कूल संचालकों ने स्कूलें शुरू होने से राहत की सांस ली है। अब सवाल यह है कि क्या बच्चों को सावधानी के साथ बिठाया और लाया ले जाया जा सकेगा?

जहां कहीं भी स्कूलें शुरू हुई हैं या हो रही हैं, यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इस फैसले के साथ ही स्कूल के किसी भी किस्म के कर्मचारी एक किस्म से फ्रंटलाइन वर्कर्स हो गए हैं, जो कि अभी तक अस्पताल या स्वास्थ्य कर्मचारी ही थे, और सफाई कर्मचारी ही थे। इनके बाद पुलिस और सरकार के सीधे मैदानी ड्यूटी करने वाले नुमाइंदे इस तबके में आते थे। अब जब रोजाना सैकड़ों बच्चों से सीधा वास्ता पड़ेगा तो स्कूल के हर दर्जे के कर्मचारी भी उसी तरह खतरे में आएंगे और उनके खतरे में आने से एकमुश्त सैकड़ों बच्चे भी खतरे में आ सकते हैं। इसलिए स्कूलों को खुद ही या वहां की सरकारों को, या स्थानीय निर्वाचित संस्थाओं को, स्कूलों में हर किसी कर्मचारी के लिए कोरोना टीकाकरण का इंतजाम करना चाहिए और उसके बाद ही उनका बच्चों से संपर्क होने देना चाहिए। एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई काफी नहीं थी जो उन्हें इस तरह अब बसों में और क्लास रूम में भीड़ के बीच धक्का-मुक्की में लाया ले जाया जाएगा?

इस बारे में कुछ एक मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों से, परामर्शदाताओं से बात करने पर यह समझ में आता है कि पिछले डेढ़ बरस से अधिक वक्त से बच्चे घर बैठे हुए थे या आस-पड़ोस में भी बड़े सीमित संपर्क में आ जा रहे थे। एक सामाजिक व्यवस्था के तहत स्कूलों में अपने हमउम्र बच्चों के साथ जिस तरह का सामाजिक संपर्क उनका होता था, जो कि उनकी विकास प्रक्रिया में अहमियत रखता था, वह तकरीबन खत्म सा हो गया था। ऐसे में इन बच्चों को घर में रहते हुए क्या कोई बड़ा मानसिक नुकसान हो रहा था? इस बारे में जानकार लोगों का कहना है कि छोटे बच्चों के तो दिमाग इस तरह से तैयार रहते हैं, इतने लचीले रहते हैं, कि वह एक-दो बरस की ऐसी दिक्कतों से तेजी से उबर जाएंगे, लेकिन जो बच्चे किशोरावस्था में पहुंच रहे हैं, या अभी पहुंचे ही हैं, उनके लिए यह डेढ़ साल बड़ा भारी रहा है। इस दौरान वे शारीरिक और मानसिक फेरबदल के ऐसे दौर से गुजरते रहते हैं कि उन्हें अपने हमउम्र बच्चों के साथ मिलने-जुलने, उनके साथ बात करने, और उनसे कई मुद्दों को समझने का मौका मिलता है, जो कि घर रहते मुमकिन नहीं है। किशोरावस्था के बच्चे मां-बाप के काबू से बाहर भी निकलने के दौर में रहते हैं, लेकिन कोरोना वायरस के खतरे ने, और लॉकडाउन ने उन्हें घर में रख दिया, जो कि उनका अधिक बड़ा नुकसान हुआ, छोटे बच्चों के मुकाबले। इसलिए कुछ मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता यह मानते हैं कि किशोरावस्था के बच्चों के लिए स्कूलें शुरू होना अधिक जरूरी था और पढ़ाई के मुकाबले भी उनके व्यक्तित्व विकास के लिए उनकी उम्र की जरूरत के लिए यह अधिक जरूरी था।

जो भी हो, ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनके बारे में जानकार लोगों के और भी विश्लेषण सामने आएंगे लेकिन फिलहाल स्कूलें शुरू होने के इस मौके पर हम इतना ही कहना चाहते हैं कि जरा सी लापरवाही भी स्कूलों को कोरोना के फैलने का एक बहुत बड़ा अड्डा बना सकती हैं, और बच्चों के मार्फत एक स्कूल भी एक दिन में सैकड़ों परिवारों तक कोरोना का खतरा पहुंचा सकती हैं। ऐसा खतरा पता लगने में कई हफ्ते लग सकते हैं और किसी शहर के आंकड़े कई हफ्ते बाद यह बतलाएंगे कि उस शहर में पॉजिटिविटी रेट बढ़ गया है, लेकिन तब तक मामला हाथ से निकल चुका रहेगा क्योंकि तब तक बच्चे आपस में एक दूसरे को कोरोना वायरस दे चुके रहेंगे, और उनके भीतर लक्षण भी आसानी से सामने नहीं आएंगे। इसलिए स्कूलों को सिर्फ पढ़ाई के लिए या बच्चों के मिलने-जुलने के लिए खोल देना काफी नहीं है, इन तमाम बच्चों के बीच कड़ी निगरानी रखना भी जरूरी है क्योंकि यह बच्चे खुद लक्षणमुक्त रहते हुए भी कोरोना को अपने परिवारों तक पहुंचा सकते हैं। अभी कोरोना की तीसरी लहर आना बाकी ही बताया जा रहा है, इसलिए भी स्कूलें बहुत खतरनाक साबित हो सकती हैं।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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