क्या 2024 तक देश निजीकरण से बचा रहेगा

खरी – अखरी

किसानों के नाम पर सेंकी जा रही रोटियां

सूदखोरों से रहम की उम्मीद करना बेवकूफी

जनता खुद काटी अपनी गर्दन

किसानों को चोरों से छुड़ाकर किया डकैतों के हवाले

चीन का नाम लेने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा प्रधान सेवक

क्या 2024 तक देश निजीकरण से बचा रहेगा

किसान किसान न हुआ रास्ते का पत्थर होकर रह गया है जिसे कोई भी आने जाने वाला लतियाते हुए चला जाता है । राष्ट्रीय स्तर पर हो या प्रादेशिक स्तर पर भाजपा हो या कांग्रेस या अन्य कोई भी राजनीतिक दल किसान के नाम पर घड़ियालू आंसू बहा कर केवल और केवल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का काम कर रहे हैं ।

सर्वहारा वर्ग के बीच से जनमीं कांग्रेस हो या बनियों की कोख़ से पैदा हुई भाजपा हो या फिर अवसरवादिता की पैदाईश अन्य क्षेत्रीय पार्टियां हो सभी ने किसानों को सब्ज़बाग दिखाकर उनकी छाती में मूंग ही दली है ।

सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दल कांग्रेस के राज में भी जब किसान प्रताड़ित होकर आत्महत्या करते रहे हैं तो फ़िर बनियों, पूंजीपतियों के गर्भ से पैदा हुई भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में यदि किसान प्रताड़ित होकर आत्महत्या कर रहे हैं तो क्या और क्यूं सवाल खड़े किये जा रहे हैं । एक सूदखोर से रहम की उम्मीद करना बेमानी और बेवकूफी ही कहा जायेगा ।

भारतीय जनता पार्टी द्वारा किसानों के हित संरक्षित करने के नाम पर बनाये गए कानूनों को अमलीजामा पहनाने के लिए जिस प्रक्रिया को अपनाया गया उसने संसदीय लोकतांत्रिक, संवैधानिक मूल्यों की हत्या करने के साथ ही विश्व स्तर पर देश के चेहरे पर कालिख़ पोतते हुए अपने जन्मदाताओं के हितों को संरक्षित कर दिया है और यह तो होना ही था ।

गांधी के हत्यारों को महिमामण्डित करने वालों ने सत्ता तक पहुंचने के लिए वर्षों का इंतज़ार यूं ही नहीं किया था । पूंजीपतियों ने भी अरबों रुपए की मदद कोई ख़ैरात के रूप में तो दी नहीं थी । व्यापारिक मदद का मूलमंत्र ही है एक हाथ दे एक हाथ ले । 2019 में तो सोने पर सुहागा तब हो गया जब जनता ने खुद अपने हाथों अपने पैरों पर वोट का वार करते हुए लोकतंत्री सीता का अपहरण करा दिया ।

तत्काल में बनाये गए कृषि क़ानूनों द्वारा सरकार ने किसानों को चोरों के हांथो से छुड़ाकर डकैतों के हाथों सौंप दिया गया है । और डकैत भी ऐसे वैसे नहीं वे डकैत जिनकी ड्योढ़ी पर खुद प्रधान सेवक नतमस्तक होता है ।

आम आदमी की थाली में रोजाना परोसे जाने वाली वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है इतना ही नहीं व्यापारियों की जमा लिमिट को भी अनलिमिटेड कर दिया गया है । साफ़ है कि सरकार के इस क़ानून से अब किसान ही तथाकथित चंद पूंजीपतियों का निवाला नहीं बनेगा बल्कि छोटे – मझोले व्यापारी भी ग्रास बनेंगे । मंहगाई तो वैसे ही हवा में उड़ रही है अब तो कुचालें भरेगी ।

जनप्रतिनिधियों और जनसेवकों का नापाक गठबंधन भृष्टाचार को पालित पोषित करने के लिए खाद पानी दे ही रहा है । जैसे शातिर अपराधी कुछ लोगों को अपनी जगह जेल जाने के लिए पाल पोस कर रखते हैं ठीक उसी तरह उच्च प्रशासनिक अमला और चतुर राजनीतिज्ञ अपने मातहतों को पाल पोस कर रखता है । चारों खूंट आमा खाये मामा गोही चाटे भांजा ही हो रहा है ।

कोरोना महामारी की दहशत फैला कर सरकार अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते हुए लोगों का ध्यान बांट रही है । इतना ही नहीं छद्म राष्ट्रवादियों की फौज खड़ी कर सरकार अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए एक – एक कर आम आदमी को सीधे प्रभावित करने वाले सरकारी संस्थानों को अपने चहेते बनियों के हवाले करती जा रही है । इससे ज्यादा शर्मनाक करतूत और क्या हो सकती है कि मोदी सरकार द्वारा 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र को संबोधित करने वाले स्थान लालक़िले का रखरखाव करने में खुद को अक्षम मानते हुए निजी हाथों में सौंप दिया गया है ।

सोचनीय है कि मोदी सरकार देश को मजबूत हाथों में होने की बात कितनी बेशर्मी से कर रही है । मोदी सरकार के घुटनाटेक की हक़ीक़त तो उसी दिन सामने आ गई है जब चीन ने देश की सीमा में घुसकर जवानों की हत्या कर दी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़ी बेशर्मी के साथ कह दिया कि भारत की सीमा में कोई नहीं घुसा । मतलब तो यही हुआ न कि जवानों ने खुद ही खुद पर हमला कर खुद की हत्या कर डाली । चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात है कि देश का प्रधान सेवक सीधे तौर पर चीन का नाम लेने की हिम्मत आज तक नहीं जुटा पाया है ।

रेल्वे प्लेटफॉर्म बेचने के बाद ग़रीब की रेलगाड़ी भी बेचने की शुरुआत कर डाली और अब तो बिजली कम्पनियों का भी निजीकरण करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है । सीधा सा मतलब है कि अब आम आदमी को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कारपोरेट घरानों का मुंह ताकना पड़ेगा ।

देशवासियों ने ऐसी कल्पना तो कभी नहीं की होगी कि जिस व्यक्ति को भारी भरकम बहुमत के साथ देश की बाग़डोर सौंप रहे हैं वह एक दिन देश का ही सौदा कर चंद पूंजीपतियों के हाथों बेच देगा । मगर अब पछताये होत का जब चिड़िया चुग गई खेत । 2024 तक तो भोगना ही पड़ेगा । सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि क्या देश 2024 तक निजी हाथों में जाने से बचा रहेगा ?

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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