लोग भारतीय भाषा और संस्कृति को भूल विदेशी भाषा और संस्कृति के मकड़जाल में उलझ रहे..!

लोग भारतीय भाषा और संस्कृति को भूल विदेशी भाषा और संस्कृति के मकड़जाल में उलझ रहे..!

हिंदी भाषा नहीं भावों की अभिव्यक्ति है,यह मातृभूमि पर मर मिटने की भक्ति है

हाथ में तुम्हारे देश की शान,हिन्दी अपनाकर तुम बनो महान

हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। भारत में कई राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं, जहां लोग अपनी मातृभाषा का प्रयोग करते हैं। यह अच्छी बात है कि अपनी मातृभाषा का प्रयोग करना चाहिए, पर देश की राजभाषा हिंदी को भी उतना ही सम्मान देना चाहिए, जितना मातृभाषा को। लेकिन आज हिंदी कुछ अंग्रेजी तो कुछ स्थानीय भाषाओं के बीच पीस रही है।
इस कारण आजादी के इतने सालों बाद भी हिंदी को वह स्थान नहीं मिल सका है, जो मिलना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक व अन्य कारणों से हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी है। जबकि देश की जनसंख्या का बहुत बडा भाग हिंदी पढ़-लिख और समझ सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल विहारी वाजपेयी ने 1977 में संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर अतंरराष्ट्रीय मंच पर हिंदी का मान बढ़ाया था। वह पहला मौका था, जब संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे वैश्विक मंच पर हिंदी में किसी ने भाषण दिया था।माना कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिताओं के लिए अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि हम अपनी राजभाषा का सम्मान न करें। हिंदी एकता की डोर को मजबूत करती है। हिंदी का मान बढ़ाने के लिए राजनेताओं, अभिनेताओं और आमजन को हिंदी के लिए मान-सम्मान अपने दिल दिमाग में भरना होगा। देश में कोई तो ऐसी भाषा तो होनी चाहिए, जिसे सारा देश समझ सकता हो। हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसे देश की बहुत-सी आबादी का हिस्सा समझता है।ऐसे में देश की आम भाषा को हिंदी बनाए जाने का किसी को विरोध क्यों करना चाहिए? जो हिंदी का विरोध करते हैं, उनसे यह सवाल है कि आखिर हिंदी को सारे देश में आम भाषा बनाए जाने से क्या उन लोगों के लिए हिंदी मददगार नहीं बनेगी, जो अपने गृहक्षेत्र से दूसरे प्रदेश में रोजी-रोजगार के लिए आते-जाते हैं और वहां की स्थानीय या अंग्रेजी भाषा नहीं समझ पाते हैं? क्या अंग्रेजी को आम भाषा बना दिया जाए, जिसे आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा समझता ही न हो?सबसे हैरान करने वाली बात तो ये है कि जिन अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बना कर भारतीयों पर तरह-तरह के जुल्म ढाए थे, आज आजाद भारत के वासी उनकी भाषा को पढना-लिखना अपनी शान समझते हैं। जितना दिखावा करने की आदत हम भारतीयों की है, उतनी शायद ही अन्य किसी देश में देखने को मिले। तभी तो यहां कुछ लोग भारतीय भाषा और संस्कृति को भूल विदेशी भाषा और संस्कृति के मकड़जाल में उलझ रहे।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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