
बिहार। समाजसेवी श्रीमती लक्ष्मी सिन्हा ने एक धार्मिक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि सत्संग की विमुखता से आज व्यक्ति केवल भौतिक संसाधनों के अवलंबन से सांसारिक नश्वर सुखों की प्राप्ति और उसे भोगने को ही अपना परम पुरुषार्थ मान बैठा है। उपभोक्तावादी संस्कृति को अपने में विवेकशून्य होकर, मृगतृष्णा की सूक्ति को चरितार्थ कर रहा है। कलिकाल के प्रभाव से वह केवल अपने परिवार तक ही सीमित और कुंठित हो गया है। राष्ट्रगौरव, देशभक्ति, परोपकार और त्याग जैसे मानवीय मानबिंदुओं की अवहेलना कर आध्यात्मिक जीवन को अर्थविहीन और निरुपयोगी मान बैठा हैं। ऐसे में यदि श्रीमद्भागवत महापुराण का अवलंबन लिया जाए तो निश्चित ही जीवन सुखम और लोकोपकारी हो जाएगा। दर्शन शब्द का भावार्थ-दृश्यते अनेनेति दर्शनम्। अर्थात जिसके द्वारा देखा और समझा जाता है, उसे दर्शन कहते हैं। अब यह प्रश्न पूछता है कि क्या देखा जाता है? यह देखने से तात्पर्य है किसी भी व्यक्ति, वास्तु और विचारादि के मूल स्वरूप और उसके महत्व को भलीभांति जान- समझ लेना। जीवन के मौलिक सिद्धांतों और उपयोगिताओं को समझकर आत्मसत्य करना ही दर्शन है, जिसे अपना और दूसरों का जीवन सार्थक और उद्देश्यपूर्ण हो सके। श्रीमद्भागवतमहापुराण के महत्व का प्रथम श्लोक हमें जीने की कला का बोधत्व प्रदान करता है। सच्चिदानंदरुपया विश्वोत्पत्यादिहेतवे।तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।। अर्थात परमात्मा सत स्वरूप, चित स्वरूप और आनंद स्वरूप है तथा इस विश्व की उत्पत्ति, पालन और लय के हेतु है, जो तीनों प्रकार के ताप का शमन करने वाले हैं, उन अनंत कोटि ब्रह्मांडनायक भगवान श्रीकृष्णा को हम सब नमन करते हैं। परमात्मा के तीन नाम है-सत, चित और आनंद। आगे श्रीमती सिन्हा ने कहा कि परमात्मा सत स्वरूप है-सत का कभी नाश नहीं होता है। कोई जीव मरना नहीं चाहता है, उनमें यह भाव कैसे आ रहा है? इसलिए भगवान सत स्वरूप है। जिसके जीवन में सत रहता है, उसका कभी पतन नहीं होता है। जो व्यक्ति किसी के सन्मार्ग को बाधित नहीं करता, उसके सत का दोहन नहीं करता, उसका जीवन सत स्वरूप परमात्मा की कृपा से सदा संरक्षित और संवर्धित होता रहता है। परमात्मा चित स्वरूप है।चित स्वतंत्र और मौन है। कोई जीव पराधीनता नहीं चाहता। उसमें यह भाव कहां से आ रहा है? इसलिए परमात्मा चित स्वरूप है।चित सदा शांत और मौन दृष्टा हैं। अतः जिसने कभी किसी के चित की शांति को स्वार्थ। या अहंकार के वशीभूत होकर बाधित नहीं किया है, उसकी शांति प्रत्येक स्थिति में रहेगी। परमात्मा आनंद स्वरूप है। कोई भी जीव दुखी होना नहीं चाहता है उसमें यह भाव कहां से आ रहा है? अतः परमात्मा आनंदस्वरूप है। आनंद सदा सबके साथ है, किंतु व्यक्ति आनंद या सुख ढूढ़ता है। भौतिक भोगपदार्थों में, जहां विषयानंद है, जो कि क्षणिक और नश्वर है। जिसने कभी किसी के सुख का अपहरण नहीं किया है, वह परमात्मा के आनंद स्वरूप का रसास्वादन करता है। जीव-जंगल के प्रणेता और नियंता भगवान है, जो व्यक्ति भगवान की ओर उन्मुख हो जाता है, उसका जीवन धन हो जाता है।
राम आसरे