
वन गमन के अंतर्गत प्रभु श्री राम अपनी भार्या सीता और अपने अनुज लक्ष्मण के साथ दंडकारण्य नामक घोर वन में पहुंचे तथा तपस्वियों के बहुत-से आश्रम देखे। आश्रम में फल-मूल का आहार करनेवाले जितेंद्रिय तथा अग्नि के समान तेजस्वी मुनि निवास करते थे। महान तेजस्वी श्री राम ने उस आश्रम मंडल को देखकर अपने महान धनुष की प्रत्यंचा उतार दी , फिर वे आश्रम के भीतर गए। उन मुनियों ने ” पत्रं पुष्पं फलं जलं ” आदि से प्रभु श्री राम जी का सत्कार किया।
मुनियों ने कहा –
ते वयं भवता रक्ष्या भवद्विषयवासिन:।
नगरस्थो वनस्थो वा त्वं मे राजा जनेश्वर:।।
हम आपके राज्य में निवास करते हैं। अतः आपको हमारी रक्षा करनी चाहिए। आप नगर में रहे या वन में , हम लोगों के राजा ही हैं।
इसके बाद पश्चात प्रभु श्री राम वन के भीतर प्रवेश किये। वहां उन्हें एक नरभक्षी राक्षस मिला। वह राक्षस इन तीनों को देखते ही क्रोध में भरकर उनकी ओर दौड़ पड़ा और सीता जी को गोद में लेकर कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया तथा कहा –
युवां जटाचीरधरौ सभार्यौ क्षीणजीवितौ।।
प्रविष्टौ दंडकारण्यं शरचापासिपाणिनौ।
तुम दोनों जटा और चीर धारण करके भी स्त्री के साथ रहते हो और हाथ में धनुष-बाण लिए दंडकवन में घुस आए हो। अतः जान पड़ता है , तुम्हारा जीवन क्षीण हो चला है।
अहं वनमिदं दुर्गं विराधो नाम राक्षस:।।
चरामि सायुधो नित्यमृषिमांसानि भक्षयन्।
मैं विराध नामक राक्षस हूं। मैं प्रतिदिन ऋषियों के मांस का भक्षण करता हुआ अस्त्र – शस्त्र लिए हुए इस दुर्गम वन में विचरण करता हूं।
निशाचर ने कहा – तुम दोनों इस सुंदर स्त्री को छोड़कर तुरंत यहां से भाग जाओ, तब मैं तुम दोनों के प्राण नहीं लूंगा। “
यह सुनकर श्री राम ने तीक्ष्ण बाणों से राक्षस को बींधना शुरू कर दिया। घायल हो जाने पर राक्षस ने सीता को अलग रख दिया और अपने बल-पराक्रम से इन दोनों भाइयों को बालकों की तरह उठाकर अपने दोनों कंधों पर बिठा लिया और सघन वन के भीतर जाने लगा।
यह देखकर सीता रोने-चिल्लाने लगी तथा कहने लगी कि तुम मुझे ही ले चलो , किंतु इन दोनों वीरों को छोड़ दो। तत्पश्चात् लक्ष्मण ने उस राक्षस की बायीं और श्री राम ने उसकी दाहिनी बांह तोड़ डाली। उसके बाद एक बड़ा गड्ढा खोदकर उस भयंकर राक्षस विराध को बलपूर्वक उठाकर गड्ढा में फेंक दिया। उस गड्ढे को मिट्टी से पाट दिया। इस प्रकार उस निशाचर का वध हुआ।
आश्रम के तपस्वी मुनियों ने निशाचरों से रक्षा की जो बात कही थी , उसका प्रत्यक्ष अनुभव श्री राम ने स्वयं किया।
पढ़ने के लिए आपको नमन एवं वंदन।
।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।