बच्चों और परिवारों को 50 50-हजार रूपए बाहर घूमने के लिए जिम्मेदार दें ताकि परिवारों को समय और पैसे सिस्टम की अनदेखी का एस्ट्रा हर्जाना न भरना पड़े-यह पब्लिक के अधिकारों में सामिल होना आवश्यक है–

बच्चों और परिवारों को 50 50-हजार रूपए बाहर घूमने के लिए जिम्मेदार दें ताकि परिवारों को समय और पैसे सिस्टम की अनदेखी का एस्ट्रा हर्जाना न भरना पड़े-यह पब्लिक के अधिकारों में सामिल होना आवश्यक है–
क्यो कि पब्लिक के लिए जो सुविधाएं, और चीजें, उपलब्ध होनी चाहिए आज की प्रोग्रेस को देखते हुए बो कार्य पालिकाएं जब समय से बाहर की हद तक देने में असफल रही हों,तो सिस्टम उसकी भरपाई करें–
बच्चों के स्कूलों की छुट्टियां चल रही है और बच्चे जिद करते हैं कहीं बाहर घूमने के लिए और स्वाभाविक भी है की साल में यही समय होता है जब बच्चों के स्कूल बंद हो जाते हैं तो वह कुछ मनोरंजन या अपनों से मिलने या बाहर घूमने जाने एंजॉय करने की पेरेंट्स से जाने की जिद करते हैं, और बाहर जगने में क्या खर्चा और समय नहीं खर्च होता है बहुत से ऐसे परिवार हैं जो बाहर जाने के लिए न उनपर इतना धन है न समय क्यों छुट्टियां सिर्फ बच्चों की होती है सरकारी कर्मचारियों, व्यापारियों की तो नहीं जब शहर और आस-पास कुछ है ही नहीं पढ़ी-लिखी पब्लिक के लिए– शहर इतने पिछड़े पड़े हैं मनोरंजन और एंजॉय के नाम पर कुछ भी नहीं है एक गांव जैसा माहोल और है तब उन क्षेत्रों और शहरों में रह रही पब्लिक का अधिकार बनता है कि बो बच्चों और उनके परिवारों को सिस्टम की निष्क्रियता की भरपाई पचास-पचास हजार रुपए देकर करे ताकि बच्चे बाहर जाते हैं उसका खर्चा परिवार और पब्लिक पर एस्ट्रा न पड़े-
मनोरंजन एंजॉय तो छोड़िए कि शहर में ऊपर मुंह करके चलना दुश्वार हो रहा है टूटी सड़कें और गंदगी से अब बारिशों का पानी सिस्टम-अंजुलियों में भरकर अपने काम और फर्ज की अदायगी करेगा पब्लिक को राहत देने के लिए-
क्योंकि घोषणाएं और नमूने तीन तीन चार चार सालों से पड़े हुए हैं दरवाजे दरवाजे शहर शहर कदम कदम पर आखिर और कितने धेर्य–क्या यह प्रशासन इन सड़कों पर पांव रखकर नहीं चलते हैं क्या एसे निष्क्रिय सिस्टम के ऊपर कोई सिस्टम ही नहीं है जो इनके कार्यप्रणाली का हिसाब और निगरानी रखे इनके ऊपर देर भी अंधेर भी पब्लिक की खून पसीना की कमाई पर राहत भी नहीं,
पर कभी सोचा है कि इसका असर क्या खाली पब्लिक पर पड़ने बाला है, यहां शायद हमारी सोच गलत हो सकती है, बो तो पहले से ही सिर्फ पांच साल की मानसिकता से आए हो पर इतना तो तय है कि इसका असर भी दूर-दूर तक जाएगा क्योंकि वोट को सिर्फ अपने अधिकार और काम चाहिए ना व्बहार न नये चेहरे और न जात धर्म।
लेखिका-पत्रकार-दीप्ति-चौहान।✍️

About The Author

निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

यह खबर /लेख मेरे ( निशाकांत शर्मा ) द्वारा प्रकाशित किया गया है इस खबर के सम्बंधित किसी भी वाद - विवाद के लिए में खुद जिम्मेदार होंगा

Learn More →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपडेट खबर के लिए इनेबल करें OK No thanks