भारत के समाजवादियों ने कैसे इसराइल की मदद की! (भाग -2, अंतिम किश्त)(आलेख : कुर्बान अली)

इस लेख के पहले भाग में मैंने अरब-इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष पर समाजवादी नेता राममनोहर मूर्ति का क्या दृष्टिकोण देखा था, यह प्रयास की बात थी। इस लेख में भारत के सोशलिस्टों की इजरायल के साथ दोस्ती और देशी-विदेशी मंचों पर उनके समर्थन का वोट डालने और उनके इजरायल के साथ हमजोली दास्तां की कोशिश की गई है।

महात्मा गाँधी और समाजवादियों का दृष्टिकोण

बहुत कम लोगों को मालूम है कि महात्मा गाँधी की आंखों के तारे कहे जाने वाले ‘समाजवादियों’ ने जो कांग्रेस पार्टी के अंदर ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ ब्लॉक के नाम से जाने जाते थे, 1948 में उनकी हत्या हो जाने के बाद फ़िलस्तीन मुद्दे पर महात्मा गाँधी की घोषित नीति के ख़िलाफ़ जाकर इसराइल का समर्थन किया था। इतना ही नहीं, इन महान ‘सेक्युलर’ और मानवतावादी लोगों ने इसराइल के साथ दोस्ताना और राजनयिक रिश्ते क़ायम करने की मुहिम भी चलायी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनल’ के माध्यम से इसराइल को एक आतंकवादी देश बनने में मदद की।

इस लेख के पहले भाग में मैंने अरब-इसराइल-फ़िलस्तीन संघर्ष पर सोशलिस्ट नेता राममनोहर लोहिया का क्या नज़रिया था, यह बताने की कोशिश की थी। इस लेख में भारत के समाजवादियों की इसराइल के साथ दोस्ती और देशी-विदेशी मंचों पर उनके समर्थन का ब्यौरा देने और उनकी इसराइलों के साथ हमजोलियों की दास्तान बताने की कोशिश की गई है।

1948 के बाद का दौर : इसराइल का समर्थन

समाजवादियों का इसराइल प्रेम 1947 में उसके गठन के वक़्त से ही शुरू हो गया था, लेकिन गाँधी जी की हत्या होने और औपचारिक रूप से कांग्रेस पार्टी से अलग होने तक वह इस बारे में थोड़ा खामोश थे। इसराइल का दौरा करने और वहां कई-कई हफ़्तों तक ‘जायनिस्ट रिजीम’ की मेज़बानी उठाने वालों में भारत के शीर्ष समाजवादी नेताओं जयप्रकाश नारायण, जेबी कृपलानी, राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, एन जी गोरे, हरि विष्णु कामथ, प्रेम भसीन, नाथ पई, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फर्नांडीस, मधु दंडवते, सुरेंद्र मोहन, राजवंत सिंह, प्रदीप बोस, श्रीमती अनुसुईया लिमये, श्रीमती कमला सिन्हा आदि-आदि प्रमुख रूप से शामिल थे। इसके अलावा इन नेताओं ने न सिर्फ़ इसराइल की आंतकवादी-विस्तारवादी नीतियों का समर्थन किया, बल्कि भारत सरकार पर इस बात के लिए भी दबाव डाला कि वह इसराइल के साथ न केवल राजनयिक रिश्ते क़ायम करे, बल्कि उसके साथ दोस्ताना सम्बन्ध भी बनाये।

जॉर्ज फर्नांडीस और ‘फ्रेंड्स ऑफ इसराइल’

संसोपा सांसद जॉर्ज फर्नांडीस ने तो जून 1967 में उस समय, जब इसराइल ने छह दिनों तक अरब देशों मिस्र, सीरिया और जॉर्डन के साथ युद्ध करने और फ़िलस्तीन के एक बड़े भू-भाग पर नाजायज़ क़ब्ज़ा कर लिया था, भारत में “फ़्रेंड्स ऑफ़ इसराइल” नमक संगठन बनाकर इसराइल की ‘जायनिस्ट रिजीम’ का समर्थन किया था। इसराइल के समर्थन में उनका बयान न सिर्फ़ देश के बड़े अख़बारों में प्रमुखता के साथ छपा था, बल्कि राममनोहर लोहिया के संपादन में निकलने वाली पत्रिका “जन” और “मैनकाइंड” के जून 1967 के अंकों में प्रकाशित भी हुआ था।

जयप्रकाश नारायण का इसराइल दौरा

इससे पहले 1950 में राममनोहर लोहिया ने इसराइल का दौरा कर उसके लोगों और प्रगति की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी (देखें इस लेख का पहला भाग)। सितम्बर 1958 में समाजवाद को तलाक़ देकर सर्वोदयी बने नेता जयप्रकाश नारायण ने इसराइल का दौरा किया और उन्होंने भी उसके लोगों और प्रगति की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। जेपी ने अपने इस इसराइल दौरे को बहुत ही महत्वपूर्ण बताते हुए पूरी दुनिया से इसराइल के साथ सहयोग और दोस्ती की अपील की थी। साथ ही उन्होंने इसराइल का सामुदायिक कार्यक्रम ‘किबुत्ज़’ देखा और उससे वह अत्यंत प्रभावित हुए। (वाल्टर प्रीस -1960, पेज-160 और सर्वोदय पत्रिका, वॉल्यूम 8-9, पेज नंबर 339, सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जेपी)।

इसके पहले जुलाई और अगस्त 1953 में कई एशियाई समाजवादियों ने ब्रिटेन का दौरा किया और स्टॉकहोम की सोशलिस्ट कांग्रेस में शिरकत की। इनमें प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव श्री प्रेम भसीन शामिल थे।

इसराइल के समर्थन में समाजवादी नेताओं की बयानबाजी

समाजवादियों ने इसराइल के साथ सहयोग और दोस्ती की बात संविधान सभा की बहसों के दौरान ही कर दी थी। फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के नेता हरि विष्णु कामथ, जो बाद में अपनी पार्टी के एक गुट का सोशलिस्ट पार्टी में विलय कर जयप्रकाश नारायण, जेबी कृपलानी और राममनोहर लोहिया के साथ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने, ने मार्च 1949 से दिसंबर 1949 के बीच कई बार संविधान सभा में इसराइल के साथ सहयोग का मुद्दा उठाया और हर बार तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट किया कि इसराइल के साथ सहयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि महात्मा गाँधी के समय से हमारी नीति फ़िलस्तीन के साथ सहयोग की रही है, (सन्दर्भ : संविधान सभा की बहसें)।

कांग्रेस पार्टी का इसराइल विरोध

इसराइल की स्थापना के पहले से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस धार्मिक आधार पर इसराइल के गठन का विरोध कर रही थी। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी नेता महात्मा गांधी का मानना था कि यहूदियों के साथ उनकी हमदर्दी है, लेकिन उन्होंने धार्मिक या अनिवार्य शर्तों पर इसराइल के निर्माण का विरोध किया। गांधी का मानना था कि अरब फ़िलस्तीन के “सही मालिक” थे, और उनका विचार था कि यहूदियों को अपने मूल देशों में लौट जाना चाहिए। गाँधी जी ने 26 नवंबर, 1938 के ‘हरिजन’ में एक लेख लिखा था, जिसका एक महत्वपूर्ण अंश है :
“मेरी तमाम हमदर्दियां यहूदियों के साथ हैं, लेकिन हमदर्दियां न्याय के तक़ाज़ों से आंखें नहीं मुंदवा सकतीं। यहूदियों के लिए क़ौमी देश बनाने की चीख़ पुकार में मेरे लिए कोई अपील नहीं है। फ़िलस्तीन, अरबों की उसी तरह संपत्ति है, जैसे बर्तानिया अंग्रेज़ों की और फ़्रांस फ़्रांसीसियों की। यहूदियों को अरबों पर लादना ग़लत है।”

मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने भारत को यहूदी राज्य की स्थापना का समर्थन करने और उसे मनाने के लिए 13 जून 1947 को जवाहरलाल नेहरू को चार पन्नों का एक पत्र लिखा था। नेहरू ने आइंस्टीन के इस अनुरोध को विनम्रता के साथ अस्वीकार कर दिया। इतना ही नहीं, भारत ने 1947 की फ़िलस्तीन विभाजन योजना और संयुक्त राष्ट्र में इसराइल के प्रवेश के ख़िलाफ़ भी मतदान किया।

हिंदू राष्ट्रवादियों का समर्थन

दूसरी ओर 1949 में हिंदू राष्ट्रवाद के विभिन्न समर्थकों ने इसराइल के निर्माण का समर्थन किया और उससे सहानुभूति व्यक्त की। हिंदू महासभा के नेता वी डी सावरकर ने नैतिक और राजनैतिक दोनों आधारों पर इसराइल के निर्माण का समर्थन किया और संयुक्त राष्ट्र में इसराइल के खिलाफ भारत के वोट की निंदा की।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता माधव सदाशिव गोलवलकर ने यहूदी राष्ट्रवाद की प्रशंसा करते हुए कहा कि फ़िलस्तीन यहूदी लोगों का प्राकृतिक क्षेत्र है, जो राष्ट्रीयता की उनकी आकांक्षा के लिए आवश्यक है।
जबकि सोशलिस्ट नेता हरि विष्णु कामथ का कहना था कि अरबों के प्रति भारत की नीति अरबों से प्रेम के कारण नहीं, बल्कि राजनीति से प्रेरित है और इससे भारत का दोगलापन उजागर हुआ है। हरि विष्णु कामथ ने 17 अप्रैल, 1964 को लोकसभा में यह मुद्दा उठाते हुए कहा था कि भारत को अरब-इसराइल संघर्ष की तुलना में इसराइल के प्रति अपनी नीति अधिक सावधानी से बनानी चाहिए।

समाजवादियों की दोहरी नीति का विश्लेषण

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि आरएसएस और जनसंघ के अलावा इसराइल का खुला समर्थन करने वालों में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और स्वतंत्र पार्टी जैसे दल भी शामिल थे। भारतीय जनसंघ के कार्यकर्त्ताओं को तो इसराइल में ट्रेनिंग भी दी जाती थी।

1950 के दशक में इसराइल की सत्ताधारी मापाई पार्टी (यह इसराइल की जायनिस्ट लेबर डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट पार्टी थी, जिसका विलय बाद में वहां की लेबर पार्टी में हो गया था।) का भारत की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के साथ घनिष्ठ संबंध रहा। पीएसपी और मापाई पार्टी के सदस्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोशलिस्ट इंटरनेशनल (एसआई) के साथ जुड़े थे। जब इसराइल ने एशिया के अन्य देशों, ख़ासकर भारत के राजनीतिक दलों के साथ संबंध विकसित करना शुरू किये, तो इसकी शुरुआत जनवरी 1953 में रंगून में हुए पहले एशियाई समाजवादी सम्मेलन से हुई। इस एशियाई समाजवादी सम्मेलन में इसराइल को आमंत्रित किया गया था। (भारत और मध्य पूर्व, पृथ्वी राम मुडियाम – 1994 -, पृष्ठ 153)।

भारत में इसराइल के प्रति समाजवादियोंका दृष्टिकोण

ग़ौरतलब बात यह है कि पीएसपी, एशियाई समाजवादी सम्मेलन को आयोजित करने वाली सह-प्रायोजित पार्टी थी और इससे इसराइल को एशिया में कुछ सम्मान हासिल करने और अपनी ज़मीन बनाने में मदद मिली। इस सम्मलेन में राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के अलावा भारत के 77 समाजवादी नेताओं ने भाग लिया था।

अक्टूबर-नवंबर 1956 में बम्बई में पीएसपी द्वारा आयोजित एशियन समाजवादियों के दूसरे सम्मेलन में इसराइल से मापाई पार्टी ने एक मजबूत प्रतिनिधिमंडल पूर्व प्रधान मंत्री और विदेश मंत्री मोशे शेरेट के नेतृत्व में भारत भेजा। इसके बाद मार्च 1966 में इसराइल के राष्ट्रपति ज़ल्मान शज़र काठमांडू के रास्ते कलकत्ता में थोड़े समय के लिए रुके, जहां समाजवादी नेताओं से उनकी मुलाक़ात हुई। उनकी इस यात्रा से एक बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ, क्यूंकि भारत सरकार ने इसकी इजाज़त नहीं दी थी।

कलकत्ता में इस प्रकरण के बाद पीएसपी ने इसराइल से सामान्य संबंधों की वकालत तेज कर दी, जिसमें बाद में लोहिया की संसोपा भी शामिल हो गई। पीएसपी ने अक्टूबर 1966 में जारी अपने चुनाव घोषणापत्र में भी इसराइल के साथ दोस्ताना रिश्ते बनाने पर ज़ोर दिया और सरकार से इसराइल के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने का आग्रह किया। (जनता खंड-21, संख्या 39, 16 अक्टूबर, 1966 और पश्चिम एशिया और भारत की विदेश नीति, वरिंदर ग्रोवर द्वारा – 1992 – पृष्ठ-503).

1950 के दशक में ही सोशलिस्ट इंटरनेशनल ने, इसराइल के समाजवाद की उपलब्धियों की सराहना करते हुए एक आधिकारिक पुस्तिका भी प्रकाशित की, जिसमें प्रमुख भारतीय समाजवादी नेता, जेबी कृपलानी की प्रस्तावना शामिल थी, जिसमें उन्होंने इसराइली समाजवाद की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए इसराइल के बहिष्कार करने वालों की निंदा की थी, जिसमें भारत भी शामिल था, (फिलिप मेंडेस, निक डायरेनफर्थ – 2015)।

वर्ष 1972 में प्रसोपा और संसोपा का विलय होने और सोशलिस्ट पार्टी का गठन हो जाने के बाद बंबई में इसराइल श्रमिक नेताओं का एक उच्च पदस्थ प्रतिनिधिमंडल उप महासचिव सहित 20 अक्टूबर को हिंद मजदूर पंचायत कार्यालय के दफ़्तर में समाजवादी नेताओं से मिला, जिनमें इसराइल के बंबई स्थित उप-वाणिज्यदूत श्रीमान एवं श्रीमती जी. बेन-अमी भी शामिल थे। इस दौरान इसराइली प्रतिनिधिमंडल ने भारत के समाजवादी नेताओं के साथ एक बैले नृत्य “आज़ादी की जंग” का भी आनंद लिया। इस बैले नृत्य में 1857 से 1972 तक के भारत को गुलामी से आजादी की ओर ले जाने वाली शक्तियों और घटनाओं का चित्रण किया गया था, (जनता – खंड 27 – पृष्ठ 29, 1972)।

27 से 29 अप्रैल, 1960 को इसराइल के शहर हाइफ़ा में सोशलिस्ट इंटरनेशनल की काउंसिल कांफ्रेंस की एक बैठक हुई। इस सम्मेलन में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष अशोक मेहता को आमंत्रित किया गया। “एशिया में सामाजिक लोकतंत्र के कार्य” — इस विषय पर अशोक मेहता ने अपना शुरूआती भाषण दिया, (टास्क ऑफ़ सोशल डेमोक्रेसी इन एशिया पेज नंबर 1, अशोक मेहता)।

उसी समय पीएसपी की ओर से पार्टी अध्यक्ष अशोक मेहता सोशलिस्ट इंटरनेशनल की रोम और वियना में हुई बैठकों में शामिल हुए। साथ ही उन्होंने पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका का भी दौरा किया, (जनता – खंड 18 – पृष्ठ 414.1961)।

1963 में पीएसपी पार्टी ने इसराइल को क़ानूनी मान्यता न देने के संबंध में केंद्र सरकार से सवाल किया। (‘इजरायल एंड द अरब्स’ सुरेंद्र मोहन, जनता, 8 अप्रैल 1964, भारत की विदेश नीति पर समाजवादियों का दृष्टिकोण – पृष्ठ 201, एस. एम. मोहिउद्दीन सुभानी – 1977). इसके अलावा भारत-इजरायल सहयोग बढ़ाने और इसराइल के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित करने में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता काफी सक्रिय और सबसे आगे थे, (भारत की इसराइल नीति, पी. आर. कुमारस्वामी द्वारा – 2013)।

(क़ुरबान अली एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इस समय वे देश में समाजवादी आंदोलन के इतिहास का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं।)

सन्दर्भ नोट :

प्रथम एशियाई समाजवादी सम्मेलन (एशियन सोशलिस्ट) की बैठक 6 जनवरी, 1953 को रंगून में हुई। बैठक ने 15 जनवरी तक अपना विचार-विमर्श जारी रखा और इसमें 177 प्रतिनिधियों ने भाग लिया।भारत, बर्मा, इंडोनेशिया, मलेशिया, सियाम, वियतनाम, कोरिया, फिलीपींस, जापान, पाकिस्तान, लेबनान, मिस्र और इज़राइल से प्रतिनिधि आये थे। कुल 470 प्रतिनिधि थे। जयप्रकाश नारायण और अशोक मेहता के नेतृत्व में भारत का प्रतिनिधिमंडल शामिल था। सोशलिस्ट इंटरनेशनल का इतिहास- खंड 3 – पृष्ठ 367 ; जूलियस ब्रौन्थल – 1980 एवं प्रथम एशियाई समाजवादी सम्मेलन की रिपोर्ट, रंगून, 1953 – पृष्ठ 1).

यूरोपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र पर समाजवादी अंतर्राष्ट्रीय संपर्क समिति : स्ट्रास्बका 7-9 मई 1960 ; पेरिस, 23 जुलाई 1960 : श्री एच. विल्सन, एम.पी., श्री एच. इर्नशॉ, श्री जे. क्लार्क के साथ थे एशियन सोशलिस्ट कांग्रेस के प्रतिनिधि श्री कर्पूरी ठाकुर, श्री जगदीश सिंह, श्री रामा झा और श्री द्वारको सुंदरानी (सभी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से)।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

यह खबर /लेख मेरे ( निशाकांत शर्मा ) द्वारा प्रकाशित किया गया है इस खबर के सम्बंधित किसी भी वाद - विवाद के लिए में खुद जिम्मेदार होंगा

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