
एटा : भारत में प्राचीन काल से ही तालाबों को जल-संरक्षण और पर्यावरण-संतुलन के महत्वपूर्ण साधन के रूप में देखा गया है। गाँव-गाँव में तालाब न केवल जल की आवश्यकता की पूर्ति करते थे, बल्कि यह जैव विविधता, खेती, और पशुपालन के लिए भी अत्यंत उपयोगी होते थे। परंतु आज स्थिति चिंताजनक है—तेजी से होते शहरीकरण, अवैध कब्जे, और प्रशासन की उदासीनता के कारण तालाब तेजी से विलुप्त होते जा रहे हैं।
आज जनपद के कई हिस्सों में सेकड़ो वर्ष पुराने तालाब या तो सूख चुके हैं या फिर उन पर मकान, दुकानें या सड़कें बना दी गई हैं। शहरी विकास के नाम पर इन जल स्रोतों की उपेक्षा की जा रही है। छोटे शहरों और कस्बों में तो कई तालाबों को कचरे और गंदगी से पाट दिया गया है।
तालाबों की रक्षा और संरक्षण की जिम्मेदारी प्रशासन की होती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि अधिकांश स्थानों पर प्रशासन केवल कागज़ों में कार्य करता है। तालाबों के पुनर्जीवन की योजनाएँ बनती हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं होता।
तालाबों के विलुप्त होने से सबसे बड़ा असर जल संकट के रूप में सामने आता है। भूजल स्तर गिरता जा रहा है, जिससे पीने और सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता घट रही है। साथ ही, यह स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी घातक है—कई प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं, और गर्मियों में तापमान में अत्यधिक वृद्धि देखी जा रही है।
तालाब केवल जलस्रोत नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और पारिस्थितिक विरासत हैं। यदि अभी भी प्रशासन और समाज ने इस ओर गंभीरता नहीं दिखाई, तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल इन तालाबों की कहानियाँ ही सुनेंगी।
मनोज कुमार यादव “पत्रकार”