
भारत जैसे विकासशील देश में मज़दूर वर्ग समाज की रीढ़ की हड्डी कहलाता है। चाहे वह खेतों में काम करने वाले कृषि मज़दूर हों, कारखानों में काम करने वाले औद्योगिक श्रमिक हों या निर्माण कार्य में जुटे मजदूर—ये सभी समाज के आर्थिक ढांचे को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि मज़दूरों की स्थिति आज भी अत्यंत दयनीय बनी हुई है।
मज़दूरों को लंबे समय तक कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। उन्हें न तो उचित वेतन मिलता है और न ही स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा या आवास जैसी बुनियादी सुविधाएं। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को तो न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं मिलती। बाल मज़दूरी, महिला मज़दूरी और बंधुआ मज़दूरी जैसे मुद्दे आज भी हमारे समाज को जकड़े हुए हैं। महिला मज़दूरों को पुरुषों की तुलना में कम वेतन और अधिक शोषण का सामना करना पड़ता है।
मज़दूरों ने अपने अधिकारों के लिए कई संघर्ष किए हैं। यूनियन बनाकर वे अपने अधिकारों की रक्षा की कोशिश करते हैं, लेकिन कई बार उन्हें दमन का सामना करना पड़ता है। हड़तालें, रैलियाँ और धरने उनके संघर्ष के प्रमुख माध्यम रहे हैं। 1 मई को मनाया जाने वाला “अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस” उनके संघर्षों और बलिदानों की याद दिलाता है।
सरकार ने श्रमिकों के कल्याण के लिए कई योजनाएँ और कानून बनाए हैं, जैसे – श्रम कानून, न्यूनतम वेतन अधिनियम, सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ, ईएसआई योजना आदि। लेकिन इनका पालन कई जगहों पर नहीं होता या इनकी जानकारी मज़दूरों को नहीं होती। ज़मीनी स्तर पर इनका प्रभाव सीमित ही रहा है।
मज़दूरों की स्थिति में सुधार के लिए समाज, सरकार और उद्योगों को मिलकर प्रयास करना होगा। मज़दूरों को सम्मान और अधिकार मिलना चाहिए ताकि वे भी गरिमापूर्ण जीवन जी सकें। जब तक श्रमिक सुरक्षित और सशक्त नहीं होंगे, तब तक देश का संपूर्ण विकास अधूरा रहेगा।