
परवर्ती पूंजीवाद (Late capitalism) के अंतर्गत मेहनतकश जनता पर ऐसा हमला हो रहा है, जो आरंभिक पूंजीवाद के हमले की याद दिलाता है और यह हमला विश्वव्यापी है, जो सिर्फ तीसरी दुनिया में ही नहीं हो रहा है, बल्कि विकसित पूंजीवादी देशों में भी हो रहा है। यह हमला तीन स्तरों पर हो रहा है– आर्थिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक।
ग़रीब मेहनतकशों पर आर्थिक हमला
आर्थिक स्तर पर हमले की तो काफी बात होती रही है। यह हमला बढ़ी हुई मुद्रास्फीति और बहुत बढ़ी हुई बेरोजगारी, दोनों का नतीजा है, जिनसे इस समय पूंजीवादी दुनिया संत्रस्त है। बढ़ी हुई मुद्रास्फीति की शुरूआत, खासतौर पर अमरीका में बड़ी पूंजी द्वारा की गयी मुनाफों के स्तर में स्वत:स्फूर्त बढ़ोतरी से हुई थी। यह बढ़ोतरी बाद में समूची पूंजीवादी दुनिया में फैल गयी। यह बढ़ोतरी किस तरह से फैली, इसकी चर्चा हम यहां नहीं कर के, बाद में किसी लेख में करेंगे। और जहां तक बढ़ी हुई बेरोजगारी की बात है, वह एक ओर विश्व पूंजीवादी संकट और दूसरी ओर, जान-बूझकर रोजगार में कटौतियों के जरिए, मजदूर वर्ग की कीमत पर मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने की हर जगह सरकारों द्वारा की जा रही कोशिशों, दोनों का संयुक्त नतीजा है। यह सरकारों द्वारा इसकी उम्मीद में किया जाता है कि बेरोजगारी बढ़ने से मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत इतनी घट जाएगी कि वे महंगाई की भरपाई करने के लिए, अपनी रुपया मजदूरी में बढ़ोतरी कराने के लिए सौदेबाजी करने की स्थिति में ही नहीं रहेंगे और इसके चलते मुद्रास्फीति अंतत: धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी।
जैसा कि एरिक हाब्सबॉम जैसे इतिहासकारों ने इंगित किया था, औद्योगिक क्रांति के शुरूआती वर्षों में पूंजीवाद की पहचान गरीबी में बढ़ोतरी से होती थी। उसी प्रकार, परवर्ती पूंजीवाद में भी आज घोर वंचितता के स्तर में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है।
जोसफ स्टिग्लित्ज ने तर्क दिया था कि किसी अमेरिकी पुरुष मजदूर की औसत मजदूरी 2011 में, 1968 के मुकाबले कुछ घटकर थी। वर्तमान मुद्रास्फीति के साथ, आज की वास्तविक मजदूरी 2011 के मुकाबले, और इसलिए 1968 के मुकाबले भी, घटकर बैठेगी। जब हम इसमें 1968 के मुकाबले अमरीका में बेरोजगारी की दर में बढ़ोतरी को और जोड़ देते हैं (बेरोजगारी की सरकारी दर इस तथ्य को छुपा लेती है, क्योंकि इसमें उस ‘हतोत्साहित मजदूर प्रभाव’ के चलते, जो ऊंची बेरोजगारी के दौर में सक्रिय होता है, श्रम में मजदूरों की हिस्सेदारी की दर में आने वाली कमी को हिसाब में नहीं लिया जाता है), तो इसमें किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती है कि अमरीकी मजदूरों की दरिद्रता बढ़ गयी है। यही बात अन्य विकसित पूंजीवादी देशों के संबंध में भी कही जा सकती है।
भारत जैसे देशों के लिए और शेष तीसरी दुनिया के लिए, इसके स्पष्ट साक्ष्य हैं कि वहां की आबादी के पोषण का स्तर घट गया है। इसका माप खाद्यान्नों की प्रतिव्यक्ति खपत में (जिसमें खाद्यान्न का प्रत्यक्ष उपभोग और पशु उत्पादों के लिए पशु आहार के रूप में लगने वाला खाद्यान्न तथा खाद्य वस्तुओं के रूप में प्रसंस्कृत किया जाने वाला खाद्यान्न, सभी शामिल हैं), 1980 के दशक के मुकाबले गिरावट से किया जा सकता है।
इससे हम यह नतीजा निकाल सकते हैं कि मेहनतकश जनता के बीच गरीबी के कुल स्तर में स्पष्ट रूप से बढ़ोतरी हुई है। इसका अर्थ यह हुआ कि पूंजीवादी दुनिया में मेहनतकश जनता पर और सबसे बढ़कर गरीब मेहनतकशों पर, आर्थिक हमला हो रहा होने में कोई शक नहीं हो सकता है।
नव-फासीवादी संरचनाएं और राजनीतिक हमला
बहरहाल, इस तरह का आर्थिक हमला, मेहनतकश जनता के राजनीतिक अधिकारों को कतरे बिना तो, यानी इसके साथ ही साथ उन पर राजनीतिक हमला भी किए बिना तो, चलते रहा ही नहीं जा सकता है। और इस राजनीतिक हमले ने नव-फासीवाद का रूप लिया है, जो पूंजीवादी दुनिया में बड़े पैमाने पर उभर कर आया है।
आज अनेक देशों में नव-फासीवादी नेता शासन के मुखिया बने हुए हैं। इस सूची में अर्जेंटीना के मिलेई से लेकर इटली की मेलोनी, अमरीका के ट्रम्प, भारत के मोदी, हंगरी के ओर्बान, तुर्किए के एर्दोगन तक शामिल हैं। और कहने की जरूरत नहीं है कि नेतन्याहू भी, हालांकि वह एक अलग ही श्रेणी में आते हैं।
और दूसरे अनेक देशों में नव-फासीवादी ताकतें सत्ता हासिल करने के मौके के इंतजार में बैठी हुई हैं, मिसाल के तौर पर जर्मनी में एएफडी और फ्रांस में मेरीन लॉ पेन की पार्टी, जिसका रास्ता अब तक एकजुट वामपंथ ने रोका हुआ है।
इन नव-फासीवादी संरचनाओं द्वारा मेहनतकश जनता पर छेड़े जाने वाले राजनीतिक हमले में, मजदूरों तथा उनकी ट्रेड यूनियनों के सीधे-सीधे दमन तथा मजदूरों के अधिकारों के वैधानिक रूप से कतरे जाने का योग, विमर्श के ही बदले जाने के साथ किया जाता है और यह किया जाता है किसी असहाय अल्पसंख्यक समूह को ‘पराया’ घोषित करने और उसके खिलाफ बहुुसंख्यकों के बीच नफरत पैदा करने के जरिए। विमर्श में इस तरह का परिवर्तन न सिर्फ मेहनतकश जनता की रोजमर्रा की भौतिक जिंदगी के मुद्दों को पीछे धकेलने का काम करता है, बल्कि उन्हें धार्मिक या इथनिक आधार पर (जिस आधार पर उन्हें ‘पराया’ किया गया होता है) बांटने का भी काम करता है। यह उन्हें अपने ऊपर थोपी गयी आर्थिक वंचना के खिलाफ एकजुट प्रतिरोध प्रस्तुत करने में असमर्थ बना देता है।
मेहनतकशों पर विचारधारात्मक हमला
बहरहाल, अब जो चीज खासतौर पर ध्यान खींचने वाली हो गयी है, वह है मेहनतकश जनता पर इस आर्थिक तथा राजनीतिक हमले से अलग से, विचारधारात्मक हमला। यह भी, इस या उस व्यक्ति द्वारा जब-तब कर दी जाने वाली टिप्पणियों तक ही सीमित नहीं है। इस तरह की मेहनतकश-जन विरोधी टिप्पणियां दुनिया भर में की जा रही हैं, जो मेहनतकश जनता पर विचारधारात्मक हमले के लिए परिस्थिति-संयोग के उभरने की ओर इशारा करता है।
भारत में, इस आर्थिक वंचना के सामने विभिन्न राजनीतिक संरचनाएं, जो एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था के दायरे में सत्ता हासिल करने की कोशिश कर रही होती हैं, जो बढ़ता हुआ रोजगार पैदा करने में असमर्थ है, जनता के पक्ष में विभिन्न हस्तांतरणों की पेशकशें कर रही हैं। बेशक, ये हस्तांतरण अपने आप में बहुत छोटे हैं, जो मेहनतकश जनता के आर्थिक दरिद्रीकरण की काट करने में असमर्थ हैं, वर्ना हमें पोषणगत वंचना देखने को नहीं मिल रही होती, जिसका हम पीछे जिक्र कर आए हैं।
फिर भी इन हस्तांतरणों पर सत्ताधारी नव-फासीवादियों द्वारा और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ‘‘मुफ्त की रेवडिय़ां’’ कहकर हमले किए जाते हैं।
हालांकि, खुद सत्ताधारी पार्टी को अब चुनावी मजबूरियों के चलते खुद भी लोगों के लिए इस तरह के हस्तांतरणों की पेशकश करनी पड़ रही है, हस्तांतरणों पर इस हमले का जिम्मा अब दूसरों ने संभाल किया है।
एक बिजनेस एक्जिक्यूटिव, जिसने पिछले ही दिनों मजदूरों के लिए 90 घंटे के कार्य सप्ताह की मांग की थी (वास्तव में वह तो भारतीय कारखानों में आउत्सवित्ज जैसा माहौल बनाना चाहता है), मैदान में कूद पड़ा है और उसने दावा किया है कि इस तरह के हस्तांतरण या उसके शब्दों में कहें, तो ‘मुफ्त की रेवड़ियां’ लोगों को, काम न करने के लिए प्रेरित करते हैं।
और अब सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश भी इस समूहगान में शामिल हो गए हैं। उन्होंने यह इशारा किया है कि इस तरह के हस्तांतरण लोगों को काम करने से रोकते हैं, क्योंकि वे तो बिना कुछ किए, घर पर बैठे रह सकते हैं और मुफ्त की रेवड़ी का फायदा लेते रह सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के इन जज साहब ने अगर इन हस्तांतरणों के बदले में, सरकार के लिए लोगों को उपयुक्त रोजगार मुहैया कराना अनिवार्य कर दिया होता, तब तो दूसरी बात होती, लेकिन उन्होंने सिर्फ हस्तांतरणों के खिलाफ टिप्पणियां की हैं, न कि लोगों को समुचित रोजगार मुहैया कराने के पक्ष में।
बेशक, इस तरह के लोग यह दलील देंगे कि रोजगार तो हैं, लेकिन उनके लिए काम करने वाले ही नहीं हैं। लेकिन, वे अपने इस तरह के दावे के लिए न केवल कोई साक्ष्य मुहैया नहीं कराते हैं, बल्कि इसका भी साक्ष्य नहीं देते हैं कि जिन रोजगारों के लिए, उनके दावे के अनुसार, काम करने वाले ही नहीं मिल रहे हैं, मजदूरी का क्या स्तर है।
खुद अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) को यह पता चला है कि भारत में स्तरीय रोजगार के अवसरों का भारी अभाव है। सरकार के रोजगार के आंकड़े गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण हैं, क्योंकि ये आंकड़े पारिवारिक उद्यमों में महिलाओं के अवैतनिक काम में बढ़ोतरी को दिखाते हैं और इस बढ़ोतरी को, रोजगार में बढ़ोतरी में गिन लिया जाता है। लेकिन, ये बढ़ोतरी तो अन्यत्र फलदायी रोजगार के अभाव को ही दिखाती है और इसलिए यह तो वह चीज है, जिसे अर्थशास्त्री आम तौर पर ‘छुपी हुई बेरोजगारी’ या डिसगाइस्ड अनएंप्लाइमेंट कहते हैं।
अमरीका में विचारधारात्मक हमला
मेहनतकश जनता पर ठीक ऐसा ही विचारधारात्मक हमला, अमरीका में भी हो रहा है। एलन मस्क, जिसे डोनाल्ड ट्रंप द्वारा बनाए गए ‘‘डिपार्टमेंट आफ गवर्नमेंट इफीशिएंसी’’(डीओजीई) का प्रमुख बनाया गया है, उसकी टिप्पणियों से ऐसा लगता है कि वह गरीबों के लिए मेडिकएड, मेडीकेयर तथा सामाजिक सुरक्षा लाभों में कटौतियां करने जा रहा है। इसी की आशंका हाल ही में बर्नी सेंडर्स ने जतायी थी, (एमआर ऑनलाइन, 13 फरवरी)। और गरीबों के लिए हस्तांतरणों पर यह हमला बर्नी सेंडर्स के अनुसार इसलिए किया जा रहा है कि इससे बचने वाले पैसे को अमीरों को कर रियायतें देने की ओर मोड़ा जा सके। जिन्हें ये रियायतें दी जानी है, उनमें खुद मस्क, जैफ बेजोस तथा मार्क जुकरबर्ग जैसे लोग शामिल हैं।
और यह एक घनघोर विचारधारात्मक हमला है, जो तथाकथित ‘‘आपूर्ति-पक्षीय अर्थशास्त्र’’ के सिद्धांतों के अनुरूप बैठता है।
उदारपंथी अर्थशास्त्री, जॉन केनेथ गॉलब्रेथ ने कहा था कि ‘‘आपूर्ति-पक्षीय अर्थशास्त्र’’ का सार इस प्रस्थापना में है कि ‘‘अमीर बेहतर काम करते हैं, अगर कमाई ज्यादा हो, जबकि गरीब बेहतर काम करते हैं, अगर कम मजदूरी मिलती है।’’ ट्रम्प तथा मस्क जैसे लोग अब इसी का प्रचार कर रहे हैं।
बहरहाल, इसमें एक विडंबना निहित है। इस विचारधारा पर चला जाना, जो गरीबों से लेकर अमीरों को पैसा देने को सही ठहराती है, पूंजीवादी संकट को और बढ़ाने का ही काम करेगा। चूंकि गरीब, अपने हाथ आने वाले हरेक डॉलर या रुपए में से, अमीरों की तुलना में ज्यादा हिस्सा उपभोग में लगाते हैं, उक्त पुनर्वितरण का मतलब यही होगा कि सकल उपभोग मांग और ज्यादा सिकुड़ जाएगी। और चूंकि पूंजीपतियों का निवेश, बाजार की वृद्धि की प्रत्याशा पर निर्भर करता है और यह बाजार की वृद्धि के वास्तविक अनुभव पर निर्भर करता है, उन्हें महज कर रियायतें देने से निवेश रत्तीभर बढ़ने वाला नहीं है। इसका कुल मिलाकर नतीजा यह होगा कि सकल मांग (उपभोग तथा निवेश को जोडक़र) घट जाएगी और यह संकट को बदतर बनाने का ही काम करेगा।
जॉन मेनार्ड केन्स ने, जो पूंजीवाद के हिमायती थे और जिन्हें इस बात का डर था कि पश्चिम में बोल्शेविक क्रांति जैसी कोई चीज पूंजीवाद को प्रतिस्थापित कर सकती थी, 1930 के दशक में यह सुझाया था कि पूंजीवाद को बचाने के लिए यह जरूरी था कि सरकारी प्रयास के जरिए सकल मांग को ऊपर उठाया जाए। लेकिन, हम समकालीन पूंजीवाद में इससे ठीक उल्टा होते देख रहे हैं, जिसके बेशक दूरगामी राजनीतिक नतीजे निकलेंगे।
(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। अनुवादक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)