एकता का स्वांग, बंटवारे की भाषा!(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

भाषा के प्रश्न पर और खासतौर पर क्षेत्रीय अस्मिता के मुद्दे पर, दक्षिण भारत एक बार फिर गर्म हो रहा है। इसका उबाल तमिलनाडु में खासतौर पर ज्यादा है, जहां पहले भी 1960-70 के दशकों में, भाषायी प्रश्न पर उग्र विरोध सामने आया था। बहरहाल, कम से कम इस बार भाषा विवाद का जोर पकड़ना इस अर्थ में अनावश्यक था कि यह विवाद केवल केंद्र सरकार के इकतरफा कदमों और इकतरफा फैसलों पर प्रतिक्रिया के रूप में भड़का है। यह कोई संयोग ही नहीं है कि साठ-सत्तर के दशकों को पीछे छोड़कर देश अगर बाद के दशकों में भाषायी अशांति से बहुत दूर निकल आया था, तो इसमें भाषायी विवाद में सामने आयी संवेदनाओं के प्रति, बाद में आयी केंद्र सरकारों के संवेदनशीलता प्रदर्शित करने का भी हाथ था। लेकिन, मोदी राज में इस तरह की संवेदनशीलता की जगह, मराठी की संज्ञा का उपयोग करें, तो केंद्र और सत्ताधारी ताकतों की ठोकशाही ने ले ली है। इसका नतीजा साठ-सत्तर के भाषायी विवाद के साए फिर से सिर पर मंडरा रहे होने के रूप में सामने है।

जैसा कि सभी जानते हैं, विवाद के वर्तमान चक्र की शुरूआत केंद्र सरकार द्वारा इकतरफा तरीके से तमिलनाडु के शिक्षा से संबंधित फंड रोके जाने के साथ हुई थी। इस सिलसिले को चलते करीब दो साल हो जाने और राज्य का इस तरह रोका गया फंड दो हजार रुपए से ऊपर निकल जाने के बाद, अब तक शिष्टता से इस मुद्दे को उठाती रही तमिलनाडु सरकार को, विरोध का अपना स्वर ऊंचा करना पड़ा। लेकिन, मोदी सरकार को इस तरह के किसी विरोध की सुनवाई करना तो दूर रहा, विरोध की ऐसी आवाज को बर्दाश्त करना भी मंजूर नहीं होता है। राज्य के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा रहा है, कहने की रस्म-अदायगी के फौरन बाद, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने फंड रोके जाने के लिए तमिलनाडु को ही यह कहकर दोषी ठहराना शुरू कर दिया कि समस्या उसके ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को लागू न करने में है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हो, फंड खुद-ब-खुद आ जाएंगे!

कहने की जरूरत नहीं है कि यह केंद्र के हाथों से निकलने वाले, केंद्रीय कार्यक्रमों के फंड को, राज्यों पर नीतिगत मामलों में बड़ी नंगई से केंद्र सरकार की मनमर्जी थोपे जाने का औजार बनाए जाने का ही मामला है। यह देश की संघीय व्यवस्था के खिलाफ है, जिसकी इजाजत देश का संविधान नहीं देता है। कोई भी स्वाभिमानी राज्य, केंद्र के इस तरह मनमर्जी थोपने का विरोध करेगा। और शिक्षा जैसे मामलों में, जो संविधान की समवर्ती सूची में आने के बावजूद, मुख्यत: राज्य के अधिकार का विषय बना हुआ है, केंंद्र की ऐसी मनमानी तो हर्गिज स्वीकार नहीं की जा सकती है। लेकिन, मोदी राज में तो केंद्र के इस तरह की मनमर्जी चलाने को ही सामान्य बनाने की कोशिश की जा रही है।

कथित राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 शुरू से आखिर तक, ऐसी मनमानी का ही उदाहरण है। संघ-भाजपा के विशेष एजेंडे और हिंदुत्व-कॉर्पोरेट गठजोड़ को आगे बढ़ाने के स्पष्ट उद्देश्य के साथ, इस शिक्षा नीति को सूत्रबद्घ करने की कई साल लंबी कसरत से, राज्यों को बाहर ही रखा गया था, जो अन्य चीजों के अलावा इस कसरत का इस देश की समृद्घ विविधता से विमुख बने रहना ही सुनिश्चित करता था। दूसरी ओर, संबंधित कमेटी में शुरू से ही कॉर्पोरेट नजरिए का बोलबाला सुनिश्चित किया गया था। इस तरह सरासर गैर-प्रतिनिधि तरीके से, संघ-कॉर्पोरेट गठजोड़ के आग्रहों को आगे ले जाने का पूरा बंदोबस्त करने और छात्रों, शिक्षकों, अभिभावकों आदि – शिक्षा में सबसे ज्यादा हित-रखने वाले सभी तबकों की आवाजों को बाहर रखने के बाद, एक दक्षिणपंथी विचारधारात्मक आग्रहों से लदा मसौदा तैयार करने के बाद, रस्मअदायगी के तौर पर लोगों की राय लेने के लिए रखा जरूर गया, लेकिन जैसा कि पहले से अनुमान लगाया जा सकता था, विभिन्न हितधारकों की रायों को और तमाम आलोचनात्मक रायों को, सिरे से अनसुना कर दिया गया।

इसके ऊपर से, 1968 तथा 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों के विपरीत, इस शिक्षा नीति को सीधे केंद्र द्वारा इकतरफा तरीके से देश पर थोप दिया गया। इस नीति पर न सिर्फ राज्यों की कोई राय नहीं ली गयी, राज्यों को साथ लेकर चलना तो उसकी दृष्टि में भी नहीं था। उल्टे, केंद्र ने पूरे देश की ओर से नीति बनाने का अधिकार खुद-ब-खुद अपने को दे दिया था। इसके ऊपर से, संसद को भी इस प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं दी गयी और इस तरह वृहत्तर राजनीतिक राय को इस समूची प्रक्रिया से दूर ही रखा गया। केंद्र सरकार ने ही कमेटी का गठन किया और उसी ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अपनी मंजूरी से, देश पर थोप भी दिया।

हैरानी की बात नहीं है कि गैर-भाजपायी राज्यों में इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनेक पहलुओं को विभिन्न स्तरों पर उपेक्षा, असहयोग से लेकर प्रतिरोध तक का सामना करना पड़ रहा है। तमिलनाडु में यह विरोध सबसे बढ़कर, त्रिभाषा फार्मूले के लागू किए जाने के नाम पर, हिंदी के थोपे जाने के विरोध के रूप में सामने आया है। बेशक, इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा में शिक्षा पर, खासतौर पर प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर जोर दिए जाने की बात कही गयी है ; लेकिन, इसके साथ ही इसमें छोटे बच्चों के बीच बहुभाषिकता को पोसने पर भी काफी जोर दिया गया है, जिसकी शिक्षा-विज्ञानी वैज्ञानिकता पर सवाल उठ सकते हैं। बहरहाल, इसमें भी विशेष रूप से समस्यापूर्ण है, त्रिभाषा फार्मूले के नाम पर तमिलनाडु में तमिल और अंग्रेजी के अलावा, हिंदी थोपने का आग्रह। वैसे तो मोदी सरकार जब से सत्ता में आयी है, केंद्र द्वारा हिंदी थोपे जाने की शिकायतें उठती ही रही हैं। बहरहाल, त्रिभाषा फार्मूले के लागू किए जाने के केंद्र के फरमान और इस फरमान को थोपने के लिए शिक्षा के लिए राज्य के फंड तक रोकने की उसकी दादागीरी ने, चीजों को विस्फोटक बिंदु तक पहुंचा दिया है।

बेशक, त्रिभाषा फार्मूला जिसका तमिलनाडु प्रतिरोध कर रहा है, 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति की ही खोज नहीं है। तीन भाषाओं पर आधारित फार्मूला पहले से शिक्षा नीति का हिस्सा रहा था। लेकिन, एक तो उसे इस तरह अनिच्छुक राज्यों पर थोपने की कोशिश पहले नहीं की गयी थी। इसके ऊपर से, 2020 की शिक्षा नीति में त्रिभाषा फार्मूले में भी तरह-तरह के बदलाव कर दिए गए हैं, जो इस फार्मूले के जरिए वास्तव में किसी बड़े पैमाने पर तथा सही मायने में बहुभाषिकता सुनिश्चित करने के बजाय, इसे किसी न किसी प्रकार से गैर-हिंदीभाषी राज्यों पर हिंदी लादे का जाने ही फार्मूला बना देता है। यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि किस तरह संस्कृत की पढ़ाई की ओट लेकर, त्रिभाषा फार्मूले में विश्वास के पाखंड के बावजूद, हिंदी भाषी क्षेत्र के अधिकांश हिस्से को अन्य कोई आधुनिक भारतीय भाषा सीखने से दूर रखा जाता रहा है।

हैरानी की बात नहीं है कि पिछले ही दिनों आया एक अध्ययन यह दिखाता है कि हिंदी भाषी क्षेत्र 90 फीसदी एकल-भाषी है और सबसे कम बहुभाषिक है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस असंतुलन को और बढ़ाने ही जा रही है। नयी नीति में इसी छल को विदेशी भाषाओं की पढ़ाई का प्रावधान जोड़ने के जरिए और आगे बढ़ाया गया है। वास्तव में मातृभाषा में शिक्षा के पहलू से भी आरंभिक शिक्षा को आज बढ़ती चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। आल इंडिया स्कूल एजूकेशन सर्वे के आठवें चक्र से, जो एनसीईआरटी द्वारा किया गया भाषायी माध्मम पर आखिरी अखिल भारतीय सर्वे है, पता चलता है कि वास्तव में मातृभाषा में पढ़ाने वाले स्कूलों का अनुपात बढ़ने के बजाय घट ही रहा है। आठवें सर्वे के समय 86.62 फीसदी स्कूल मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा दे रहे थे, जबकि सातवें सर्वे के समय यही अनुपात 92.07 फीसदी था। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र, दोनों में यह हिस्सा घट रहा था। इससे इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्राथमिकताओं का ही पता चलता है कि यह नीति तमिलनाडु से त्रिभाषा फार्मूला लागू कराने के लिए झगड़ रही है, न कि मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा के अनुपात में गिरावट के खिलाफ कोई अभियान चला रही है, क्योंकि यह गिरावट तो शिक्षा के उस बढ़ते निजीकरण तथा व्यापारीकरण का ही नतीजा है, जिसे यह शिक्षा नीति बड़ी नंगई से प्रमोट करती है।

हैरानी की बात नहीं है कि तमिलनाडु राज्य ने भी केंद्र की मनमानी की चुनौती को स्वीकार कर लिया है। मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने कह दिया है कि केंद्र कितने ही फंड रोक ले, तमिल झुकेंगे नहीं। इस तरह, जिस हिंदी के पूरे भारत को जोड़ने वाली भाषा होने का दावा किया जाता है, उसे केंद्र की रीति-नीति ने तोड़ने वाली भाषा बनाकर रख दिया है। देश को और ज्यादा एकजुट करने के दावे के साथ, ऐसे ही तोड़ने का काम जम्मू-कश्मीर से लेकर मणिपुर तक के मामले में किया गया है। एकता का झूठा मंत्रजाप करते-करते, देश को बढ़ते विभाजन के रास्ते पर धकेला जा रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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