बाबा साहब से कौन नफरत करता है?
(आलेख : शुभम शर्मा, अनुवाद : संजय पराते)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी और भारत के गृह मंत्री अमित शाह के एक बयान ने संसद में खलबली मचा दी है। शाह ने विपक्ष को बेहद अपमानजनक तरीके से कहा कि “अगर वे (विपक्ष) अंबेडकर का नाम लेने के बजाय भगवान का नाम लेते, तो उन्हें स्वर्ग मिल जाता।” शाह के इस बयान के बाद पूरे विपक्ष ने उनके इस्तीफे की मांग की है। शाह के प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से यह बात साफ हो गई कि वे अपने बयान से बाज नहीं आएंगे। विपक्ष इस मामले को हल्के में लेने के मूड में नहीं दिख रहा है। भाजपा ने कांग्रेस पर अंबेडकर का ‘ऐतिहासिक’ अपमान करने का आरोप लगाया है। वेब पर मजेदार वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिसमें दिखाया जा रहा है कि कांग्रेस द्वारा बाबा साहब का कथित ‘ऐतिहासिक अपमान’ करने के बारे में भाजपा के लोग कितनी कम जानकारी रखते हैं।
जैसी रस्साकशी हो रही है, हमें यह समझने की जरूरत है कि बाबा साहेब किस बात के लिए खड़े थे। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण बात, हमें यह समझने की जरूरत है कि अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बजाय हिंदुत्व की ताकतें सत्ता में होतीं, तो बाबा साहेब को कभी भी स्वतंत्र भारत के भारतीय संविधान के निर्माण में नेतृत्व करने और भाग लेने के लिए आमंत्रित नहीं किया जाता। संविधान हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद से प्रेरित एक दस्तावेज होता, जिसमें समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए कोई सम्मान नहीं होता। यह बात गोलवलकर द्वारा अपने मित्र तेलंग को 9 फरवरी 1929 को लिखे गए पत्र से समझी जा सकती है, जो बाबा साहेब द्वारा मनुस्मृति जलाने के दो साल बाद उन्होंने लिखा था। गोलवलकर ने लिखा : ”मुझे मनुस्मृति में अस्पृश्यता का एक छोटा सा आधार भी नहीं मिला।” इससे साबित होता है कि अंबेडकर खुद को गुरुजी और उनके कट्टर अनुयायियों से नहीं जोड़ते, जिन्हें मनुस्मृति में कोई दोष नहीं मिला।
दूसरे, अंबेडकर जाति-विरोधी योद्धाओं की लंबी सूची में शायद सबसे अधिक पढ़े-लिखे और शिक्षित व्यक्ति थे। उनके अधिकांश महत्वपूर्ण काम ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म की निर्मम और अथक आलोचना से संबंधित हैं। उन्होंने न केवल हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और उनके जातिगत पूर्वाग्रहों और विसंगतियों को इंगित किया, बल्कि प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति का इतिहास प्रस्तुत किया, जिसमें बौद्ध धर्म क्रांति का प्रतिनिधित्व करता है और ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म प्रतिक्रांति का। अंबेडकर ने हिंदुत्व के कट्टरपंथियों को बहुत नाराज़ करते हुए लिखा, ”भारत के पूरे इतिहास को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है मानो इसमें एकमात्र महत्वपूर्ण चीज़ मुस्लिम आक्रमणों की सूची है। लेकिन इस संकीर्ण दृष्टिकोण से भी यह स्पष्ट है कि मुस्लिम आक्रमण ही अध्ययन के योग्य एकमात्र विषय नहीं हैं … निश्चित रूप से यदि इतिहासकारों के हाथों हिंदू भारत पर मुस्लिम आक्रमण अध्ययन के योग्य हैं, तो ब्राह्मणवादी आक्रमणकारियों द्वारा बौद्ध भारत पर किए गए आक्रमण भी उतने ही अध्ययन के योग्य हैं … बौद्ध भारत पर ब्राह्मणवादी आक्रमण अपने प्रभाव में इतने गहरे रहे हैं कि उनकी तुलना में हिंदू भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का प्रभाव वास्तव में सतही और अल्पकालिक रहा है।”
उन सभी हिंदुत्ववादियों के लिए, जो अपने पूर्वजों द्वारा फैलाई गई नफरत के इतिहास से बहुत नशे में हैं, अंबेडकर का उपरोक्त अंश कभी भी सुग्राह्य नहीं होगा।
तीसरा, अंबेडकर राष्ट्र के नस्लीय विचार के विरोधी थे, जिसे सावरकर ने सिद्धांतबद्ध और समर्थित किया था। सावरकर के हिंदू राज के बारे में अंबेडकर ने लिखा था : ‘‘अगर हिंदू राज एक तथ्य बन जाता है, तो यह निस्संदेह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी। हिंदू चाहे जो भी कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए खतरा है। इस कारण से, यह लोकतंत्र के साथ बेमेल है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” भारत में फासीवाद के अपने पैर जमाने और अपने अनुयायी (आरएसएस और हिंदू महासभा) तैयार करने से पहले ही अंबेडकर ने लिखा था, ”हिंदू धर्म (सिर्फ हिंदुत्व नहीं) फासीवादी और नाजी विचारधारा के समान ही अपने चरित्र में एक राजनीतिक विचारधारा है और पूरी तरह से लोकतंत्र विरोधी है।” हिंदुओं की रक्त आधारित एकता के लिए सावरकर के आह्वान का अंबेडकर ने विरोध किया था। अंबेडकर ने 1911 की जनगणना द्वारा अपनाई गई नई वर्गीकरण प्रणाली का स्वागत किया था, जिसमें जाति के भेद को औपचारिक रूप से अपनाया गया था। विनायक चतुर्वेदी अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व और हिंसा : सावरकर और इतिहास की राजनीति’ में लिखते हैं : ”अछूतों और हिंदुओं के बीच का भेदभाव अंबेडकर के लिए खून का मामला नहीं था, बल्कि कुछ खास प्रथाओं के व्यवहार और पालन के तरीके थे … सावरकर द्वारा समान खून (जिसमें सभी खून अशुद्ध थे) के तर्क के माध्यम से हिंदू का निर्माण एक ऐसे समय में एकजुटता बनाने की रणनीति थी, जब कई स्तरों पर हिंदू पहचान के विखंडन की धारणा स्पष्ट थी।”
अंबेडकर ने सावरकर के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को भी गलत बताया था और तर्क दिया था कि “सावरकर की महत्वाकांक्षा यह नहीं थी कि भारत में हिंदू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र एक साथ रहें ; इसके बजाय, वह चाहते थे कि हिंदू ‘मुसलमानों पर साम्राज्य स्थापित करें’, ताकि हिंदुओं की ‘एक शासक नस्ल’ बनाई जा सके।” द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंबेडकर श्रम मंत्री के रूप में वायसराय की कार्यकारी परिषद का हिस्सा थे। यह वह समय था, जब हिंदुत्व की ताकतें जर्मनी में नाज़ियों का समर्थन कर रही थीं और जर्मनी में यहूदियों की तरह भारत में मुसलमानों के लिए ‘अंतिम समाधान’ की मांग कर रही थीं। इस दौरान अंबेडकर ने कार्यकर्ताओं को नाज़ीवाद और उसके खतरनाक नस्लीय दर्शन के खतरों से आगाह किया था।
प्रसेनजित बोस ने संविधान सभा में अंबेडकर के चुनाव पर एक बढ़िया लेख लिखा है। इसलिए, इस पर और विस्तार से चर्चा करने की कोई ज़रूरत नहीं है। संविधान सभा में अपने अनुभव के बारे में अंबेडकर का खुद का बयान ही बताना काफी है। 25 नवंबर 1949 को अंबेडकर ने स्वीकार किया था : ”अगर संविधान सभा एक रंग-बिरंगी भीड़ होती, सीमेंट के बिना पक्की सड़क होती, यहां एक काला पत्थर और वहां एक सफ़ेद पत्थर होता … तो प्रारूप समिति का काम बहुत मुश्किल होता … तब सिर्फ़ अराजकता होती … इसलिए, संविधान सभा में संविधान के प्रारूप के सुचारू रूप से पारित होने का सारा श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है।”
यह ऐतिहासिक रिकॉर्ड की बात है कि अंबेडकर को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार से परेशानी थी। गांधी के कहने पर कैबिनेट में शामिल किए जाने से पहले नेहरू अंबेडकर को नहीं समझते थे। कई मुद्दों पर उनके बीच मतभेद थे। उदाहरण के लिए, अंबेडकर ने संविधान की उद्देश्यिका प्रस्ताव में ‘राज्य समाजवाद’ के अपने संस्करण को शामिल न किए जाने पर दुख जताया था। नेहरू ने अपनी ओर से इसका बचाव इस बहाने से किया था कि समाजवादी राज्य का कोई भी चित्रण ‘कुछ ऐसा होगा, जो कई लोगों को स्वीकार्य हो सकता है और कुछ को स्वीकार्य नहीं होगा।’ दोनों के बीच ये मतभेद प्रगति की निरंतरता के दो बिंदुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। अंबेडकर इसे और आगे बढ़ाना चाहते थे, जबकि नेहरू कांग्रेस की एकता को बनाए रखना चाहते थे, जिसका मतलब था — कांग्रेस के रूढ़िवादियों को साथ लेकर चलना। अपमान और व्यक्तिगत नापसंदगी का उस तरह का कोई सवाल ही नहीं था, कम से कम आरएसएस-बीजेपी इसे जिस तरह से पेश करती है।
ऐतिहासिक रूप से अंबेडकर का हिंदुत्व की ताकतों से रिश्ता तेल और पानी जैसा है। वे कभी नहीं मिलेंगे। चाहे भगवा चम्मच को कितना भी हिलाया जाए।
(लेखक रिसर्च स्कॉलर हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)
Who Hates Babasaheb?
(An article by Shubham Sharma)
A statement by the Home Minister of India and the closest confidante of Prime Minister Narendra Modi, Amit Shah has set the Parliament on fire. In a very demeaning manner, Shah had told the opposition that ‘instead of chanting the name of Ambedkar if they (the opposition) would have said God’s name they would have been granted heaven.’ After Shah’s statement, the entire opposition demanded his resignation. The fact that Shah would not relent was apparent when he convened a press conference. The opposition seems to be in no mood to take things in their stride. The BJP on its part has accused the Congress of insulting Ambedkar ‘historically’. Funny videos are circulating on the web showing how ill-informed the BJP folks are about the so-called ‘historical insult’ that was meted out to Babasaheb by the Congress.
As the tug of war goes on, we need to sieve through what Babasaheb stood for. First and foremost, we need to understand that if the forces of Hindutva were in power instead of the Indian National Congress, Babasaheb would never have been invited to lead and participate in the drafting of the Indian Constitution of free India. The Hindutva-inspired constitution would have been a document inspired by Brahminism with no regard for the marginalized sections of the society. One can glean this from a letter that Golwalkar wrote to his friend Telang on 9 February 1929, two years after Babasaheb burnt the Manusmriti. Golwalkar wrote: ‘‘I have not found even a small basis of untouchability in the Manusmriti.’’ This proves that Ambedkar would not have associated himself with Guruji and his egregious followers who found no fault in the Manusmriti.
Secondly, Ambedkar was perhaps the most well-read and well-educated person in the long list of anti-caste crusaders. Most of his important works were a ruthless and unrelenting critique of Brahmanical Hinduism. He not only perused the Hindu scriptures and pointed out their caste biases and inconsistencies but offered a history of revolution and counter-revolution in ancient India with Buddhism representing the former and Brahmanical Hinduism the latter. Ambedkar wrote, to the great displeasure of the Hindutva zealots, ‘‘The whole history of India is made to appear as though the only important thing in it is a catalogue of Muslim invasions. But even from this narrow point of view it is clear that the Muslim invasions are not the only invasions worth study…Surely if Muslim invasions of Hindu India are worthy of study at the hands of the historians, the invasions of Buddhist India by Bramhanic invaders are equally deserving of study… the Bramhanic invasions of Buddhist India have been so profound in their effect that compared to them, the effect of Muslim invasions on Hindu India have been really superficial and ephemeral.’’
For all Hindutva vadis who are deeply drunk on the history of hate peddled by their progenitors, Ambedkar’s aforementioned passage would never be palatable.
Thirdly, Ambedkar was opposed to the racial idea of a nation that was theorized and espoused by Savarkar. Of the latter’s Hindu Raj, Ambedkar wrote: ‘‘If Hindu Raj does become a fact, it will, no doubt, be the greatest calamity for this country. No matter what the Hindus say, Hinduism is a menace to liberty, equality and fraternity. On that account, it is incompatible with democracy. Hindu Raj must be prevented at any cost.’’ Even before fascism bared its fangs and cultivated followers in India (RSS and Hindu Mahasabha) Ambedkar wrote, ‘‘Hinduism (not just Hindutva) is a political ideology of the same character as the Fascist and Nazi ideology and is thoroughly anti-democratic.’’ Savarkar’s call for a blood-based unity of the Hindus was opposed by Ambedkar. Ambedkar welcomed the new taxonomy adopted by the 1911 census wherein the distinction of caste was formally adopted. Vinayak Chaturvedi writes in his book Hindutva and Violence: Savarkar and the Politics of History ‘‘The distinction between Untouchables and Hindus was for Ambedkar not a matter of blood, but rather the modes of treatment and observance of certain practices…Savarkar’s construction of Hindu through an argument of common blood (in which all blood was impure) was a strategy to build a solidarity at a time when there was this clear perception of the fragmenting of Hindu identity at multiple levels.’’
Ambedkar also faulted Savarkar’s two-nation theory and argued that ‘‘Savarkar’s ambition was not for a Hindu nation to coexist with a Muslim nation within India; instead, he wanted Hindus to establish ‘an empire over Muslims’ for the purpose of creating ‘an imperial race’ of Hindus.’’ During the Second World War, Ambedkar was part of the Viceroy’s Executive Council as Labour Minister. This was the time when the forces of Hindutva were cheering the Nazis in Germany and calling for a ‘final solution’ for the Muslims in India on the lines of Jews in Germany. During this period, Ambedkar warned workers of the dangers of Nazism and its pernicious racial philosophy.
Prasenjit Bose has written a fine article on Ambedkar’s election to the Constitutional Assembly. Therefore, there is no further need for elaboration. What must be stated is Ambedkar’s own statement on his experience in the Constituent Assembly. On 25 November 1949, Ambedkar acknowledged, ‘‘The task of the Drafting Committee would have been very difficult if the Assembly had been a motley crowd, a tessellated pavement without cement, a black stone here and a white stone there…there would have been nothing but chaos…The Congress party, therefore, is entitled to all the credit for the smooth sailing of the Draft Constitution in the Assembly.’’
It is a matter of historical record that Ambedkar had troubles with the Jawaharlal Nehru-led government. Nehru did not have any acquaintance with Ambedkar before his inclusion into the cabinet at the instance of Gandhi. They differed on many issues. For instance, Ambedkar lamented the non-inclusion of his version of ‘State Socialism’ in the Objective Resolution. Nehru on his part defended it with an excuse that any delineation of a socialist State would be ‘something which may be agreeable to many and not be agreeable to some.’ The differences between the two represented two points on the continuum of progress. Ambedkar wanted to push it harder whereas Nehru desired to maintain the unity of the Congress which meant carrying the Congress conservatives along. There was no question of insult and personal dislike at least the way RSS-BJP portrays it.
Historically, Ambedkar’s relation to the forces of Hindutva is that of oil and water. They will never mix. No matter how much the saffron spoon is stirred.
(Shubham Sharma is a research scholar.)
बाबा साहब से कौन नफरत करता है?
(आलेख : शुभम शर्मा, अनुवाद : संजय पराते)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी और भारत के गृह मंत्री अमित शाह के एक बयान ने संसद में खलबली मचा दी है। शाह ने विपक्ष को बेहद अपमानजनक तरीके से कहा कि “अगर वे (विपक्ष) अंबेडकर का नाम लेने के बजाय भगवान का नाम लेते, तो उन्हें स्वर्ग मिल जाता।” शाह के इस बयान के बाद पूरे विपक्ष ने उनके इस्तीफे की मांग की है। शाह के प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से यह बात साफ हो गई कि वे अपने बयान से बाज नहीं आएंगे। विपक्ष इस मामले को हल्के में लेने के मूड में नहीं दिख रहा है। भाजपा ने कांग्रेस पर अंबेडकर का ‘ऐतिहासिक’ अपमान करने का आरोप लगाया है। वेब पर मजेदार वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिसमें दिखाया जा रहा है कि कांग्रेस द्वारा बाबा साहब का कथित ‘ऐतिहासिक अपमान’ करने के बारे में भाजपा के लोग कितनी कम जानकारी रखते हैं।
जैसी रस्साकशी हो रही है, हमें यह समझने की जरूरत है कि बाबा साहेब किस बात के लिए खड़े थे। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण बात, हमें यह समझने की जरूरत है कि अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बजाय हिंदुत्व की ताकतें सत्ता में होतीं, तो बाबा साहेब को कभी भी स्वतंत्र भारत के भारतीय संविधान के निर्माण में नेतृत्व करने और भाग लेने के लिए आमंत्रित नहीं किया जाता। संविधान हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद से प्रेरित एक दस्तावेज होता, जिसमें समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए कोई सम्मान नहीं होता। यह बात गोलवलकर द्वारा अपने मित्र तेलंग को 9 फरवरी 1929 को लिखे गए पत्र से समझी जा सकती है, जो बाबा साहेब द्वारा मनुस्मृति जलाने के दो साल बाद उन्होंने लिखा था। गोलवलकर ने लिखा : ”मुझे मनुस्मृति में अस्पृश्यता का एक छोटा सा आधार भी नहीं मिला।” इससे साबित होता है कि अंबेडकर खुद को गुरुजी और उनके कट्टर अनुयायियों से नहीं जोड़ते, जिन्हें मनुस्मृति में कोई दोष नहीं मिला।
दूसरे, अंबेडकर जाति-विरोधी योद्धाओं की लंबी सूची में शायद सबसे अधिक पढ़े-लिखे और शिक्षित व्यक्ति थे। उनके अधिकांश महत्वपूर्ण काम ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म की निर्मम और अथक आलोचना से संबंधित हैं। उन्होंने न केवल हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और उनके जातिगत पूर्वाग्रहों और विसंगतियों को इंगित किया, बल्कि प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति का इतिहास प्रस्तुत किया, जिसमें बौद्ध धर्म क्रांति का प्रतिनिधित्व करता है और ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म प्रतिक्रांति का। अंबेडकर ने हिंदुत्व के कट्टरपंथियों को बहुत नाराज़ करते हुए लिखा, ”भारत के पूरे इतिहास को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है मानो इसमें एकमात्र महत्वपूर्ण चीज़ मुस्लिम आक्रमणों की सूची है। लेकिन इस संकीर्ण दृष्टिकोण से भी यह स्पष्ट है कि मुस्लिम आक्रमण ही अध्ययन के योग्य एकमात्र विषय नहीं हैं … निश्चित रूप से यदि इतिहासकारों के हाथों हिंदू भारत पर मुस्लिम आक्रमण अध्ययन के योग्य हैं, तो ब्राह्मणवादी आक्रमणकारियों द्वारा बौद्ध भारत पर किए गए आक्रमण भी उतने ही अध्ययन के योग्य हैं … बौद्ध भारत पर ब्राह्मणवादी आक्रमण अपने प्रभाव में इतने गहरे रहे हैं कि उनकी तुलना में हिंदू भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का प्रभाव वास्तव में सतही और अल्पकालिक रहा है।”
उन सभी हिंदुत्ववादियों के लिए, जो अपने पूर्वजों द्वारा फैलाई गई नफरत के इतिहास से बहुत नशे में हैं, अंबेडकर का उपरोक्त अंश कभी भी सुग्राह्य नहीं होगा।
तीसरा, अंबेडकर राष्ट्र के नस्लीय विचार के विरोधी थे, जिसे सावरकर ने सिद्धांतबद्ध और समर्थित किया था। सावरकर के हिंदू राज के बारे में अंबेडकर ने लिखा था : ‘‘अगर हिंदू राज एक तथ्य बन जाता है, तो यह निस्संदेह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी। हिंदू चाहे जो भी कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए खतरा है। इस कारण से, यह लोकतंत्र के साथ बेमेल है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” भारत में फासीवाद के अपने पैर जमाने और अपने अनुयायी (आरएसएस और हिंदू महासभा) तैयार करने से पहले ही अंबेडकर ने लिखा था, ”हिंदू धर्म (सिर्फ हिंदुत्व नहीं) फासीवादी और नाजी विचारधारा के समान ही अपने चरित्र में एक राजनीतिक विचारधारा है और पूरी तरह से लोकतंत्र विरोधी है।” हिंदुओं की रक्त आधारित एकता के लिए सावरकर के आह्वान का अंबेडकर ने विरोध किया था। अंबेडकर ने 1911 की जनगणना द्वारा अपनाई गई नई वर्गीकरण प्रणाली का स्वागत किया था, जिसमें जाति के भेद को औपचारिक रूप से अपनाया गया था। विनायक चतुर्वेदी अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व और हिंसा : सावरकर और इतिहास की राजनीति’ में लिखते हैं : ”अछूतों और हिंदुओं के बीच का भेदभाव अंबेडकर के लिए खून का मामला नहीं था, बल्कि कुछ खास प्रथाओं के व्यवहार और पालन के तरीके थे … सावरकर द्वारा समान खून (जिसमें सभी खून अशुद्ध थे) के तर्क के माध्यम से हिंदू का निर्माण एक ऐसे समय में एकजुटता बनाने की रणनीति थी, जब कई स्तरों पर हिंदू पहचान के विखंडन की धारणा स्पष्ट थी।”
अंबेडकर ने सावरकर के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को भी गलत बताया था और तर्क दिया था कि “सावरकर की महत्वाकांक्षा यह नहीं थी कि भारत में हिंदू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र एक साथ रहें ; इसके बजाय, वह चाहते थे कि हिंदू ‘मुसलमानों पर साम्राज्य स्थापित करें’, ताकि हिंदुओं की ‘एक शासक नस्ल’ बनाई जा सके।” द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंबेडकर श्रम मंत्री के रूप में वायसराय की कार्यकारी परिषद का हिस्सा थे। यह वह समय था, जब हिंदुत्व की ताकतें जर्मनी में नाज़ियों का समर्थन कर रही थीं और जर्मनी में यहूदियों की तरह भारत में मुसलमानों के लिए ‘अंतिम समाधान’ की मांग कर रही थीं। इस दौरान अंबेडकर ने कार्यकर्ताओं को नाज़ीवाद और उसके खतरनाक नस्लीय दर्शन के खतरों से आगाह किया था।
प्रसेनजित बोस ने संविधान सभा में अंबेडकर के चुनाव पर एक बढ़िया लेख लिखा है। इसलिए, इस पर और विस्तार से चर्चा करने की कोई ज़रूरत नहीं है। संविधान सभा में अपने अनुभव के बारे में अंबेडकर का खुद का बयान ही बताना काफी है। 25 नवंबर 1949 को अंबेडकर ने स्वीकार किया था : ”अगर संविधान सभा एक रंग-बिरंगी भीड़ होती, सीमेंट के बिना पक्की सड़क होती, यहां एक काला पत्थर और वहां एक सफ़ेद पत्थर होता … तो प्रारूप समिति का काम बहुत मुश्किल होता … तब सिर्फ़ अराजकता होती … इसलिए, संविधान सभा में संविधान के प्रारूप के सुचारू रूप से पारित होने का सारा श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है।”
यह ऐतिहासिक रिकॉर्ड की बात है कि अंबेडकर को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार से परेशानी थी। गांधी के कहने पर कैबिनेट में शामिल किए जाने से पहले नेहरू अंबेडकर को नहीं समझते थे। कई मुद्दों पर उनके बीच मतभेद थे। उदाहरण के लिए, अंबेडकर ने संविधान की उद्देश्यिका प्रस्ताव में ‘राज्य समाजवाद’ के अपने संस्करण को शामिल न किए जाने पर दुख जताया था। नेहरू ने अपनी ओर से इसका बचाव इस बहाने से किया था कि समाजवादी राज्य का कोई भी चित्रण ‘कुछ ऐसा होगा, जो कई लोगों को स्वीकार्य हो सकता है और कुछ को स्वीकार्य नहीं होगा।’ दोनों के बीच ये मतभेद प्रगति की निरंतरता के दो बिंदुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। अंबेडकर इसे और आगे बढ़ाना चाहते थे, जबकि नेहरू कांग्रेस की एकता को बनाए रखना चाहते थे, जिसका मतलब था — कांग्रेस के रूढ़िवादियों को साथ लेकर चलना। अपमान और व्यक्तिगत नापसंदगी का उस तरह का कोई सवाल ही नहीं था, कम से कम आरएसएस-बीजेपी इसे जिस तरह से पेश करती है।
ऐतिहासिक रूप से अंबेडकर का हिंदुत्व की ताकतों से रिश्ता तेल और पानी जैसा है। वे कभी नहीं मिलेंगे। चाहे भगवा चम्मच को कितना भी हिलाया जाए।
(लेखक रिसर्च स्कॉलर हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)
Who Hates Babasaheb?
(An article by Shubham Sharma)
A statement by the Home Minister of India and the closest confidante of Prime Minister Narendra Modi, Amit Shah has set the Parliament on fire. In a very demeaning manner, Shah had told the opposition that ‘instead of chanting the name of Ambedkar if they (the opposition) would have said God’s name they would have been granted heaven.’ After Shah’s statement, the entire opposition demanded his resignation. The fact that Shah would not relent was apparent when he convened a press conference. The opposition seems to be in no mood to take things in their stride. The BJP on its part has accused the Congress of insulting Ambedkar ‘historically’. Funny videos are circulating on the web showing how ill-informed the BJP folks are about the so-called ‘historical insult’ that was meted out to Babasaheb by the Congress.
As the tug of war goes on, we need to sieve through what Babasaheb stood for. First and foremost, we need to understand that if the forces of Hindutva were in power instead of the Indian National Congress, Babasaheb would never have been invited to lead and participate in the drafting of the Indian Constitution of free India. The Hindutva-inspired constitution would have been a document inspired by Brahminism with no regard for the marginalized sections of the society. One can glean this from a letter that Golwalkar wrote to his friend Telang on 9 February 1929, two years after Babasaheb burnt the Manusmriti. Golwalkar wrote: ‘‘I have not found even a small basis of untouchability in the Manusmriti.’’ This proves that Ambedkar would not have associated himself with Guruji and his egregious followers who found no fault in the Manusmriti.
Secondly, Ambedkar was perhaps the most well-read and well-educated person in the long list of anti-caste crusaders. Most of his important works were a ruthless and unrelenting critique of Brahmanical Hinduism. He not only perused the Hindu scriptures and pointed out their caste biases and inconsistencies but offered a history of revolution and counter-revolution in ancient India with Buddhism representing the former and Brahmanical Hinduism the latter. Ambedkar wrote, to the great displeasure of the Hindutva zealots, ‘‘The whole history of India is made to appear as though the only important thing in it is a catalogue of Muslim invasions. But even from this narrow point of view it is clear that the Muslim invasions are not the only invasions worth study…Surely if Muslim invasions of Hindu India are worthy of study at the hands of the historians, the invasions of Buddhist India by Bramhanic invaders are equally deserving of study… the Bramhanic invasions of Buddhist India have been so profound in their effect that compared to them, the effect of Muslim invasions on Hindu India have been really superficial and ephemeral.’’
For all Hindutva vadis who are deeply drunk on the history of hate peddled by their progenitors, Ambedkar’s aforementioned passage would never be palatable.
Thirdly, Ambedkar was opposed to the racial idea of a nation that was theorized and espoused by Savarkar. Of the latter’s Hindu Raj, Ambedkar wrote: ‘‘If Hindu Raj does become a fact, it will, no doubt, be the greatest calamity for this country. No matter what the Hindus say, Hinduism is a menace to liberty, equality and fraternity. On that account, it is incompatible with democracy. Hindu Raj must be prevented at any cost.’’ Even before fascism bared its fangs and cultivated followers in India (RSS and Hindu Mahasabha) Ambedkar wrote, ‘‘Hinduism (not just Hindutva) is a political ideology of the same character as the Fascist and Nazi ideology and is thoroughly anti-democratic.’’ Savarkar’s call for a blood-based unity of the Hindus was opposed by Ambedkar. Ambedkar welcomed the new taxonomy adopted by the 1911 census wherein the distinction of caste was formally adopted. Vinayak Chaturvedi writes in his book Hindutva and Violence: Savarkar and the Politics of History ‘‘The distinction between Untouchables and Hindus was for Ambedkar not a matter of blood, but rather the modes of treatment and observance of certain practices…Savarkar’s construction of Hindu through an argument of common blood (in which all blood was impure) was a strategy to build a solidarity at a time when there was this clear perception of the fragmenting of Hindu identity at multiple levels.’’
Ambedkar also faulted Savarkar’s two-nation theory and argued that ‘‘Savarkar’s ambition was not for a Hindu nation to coexist with a Muslim nation within India; instead, he wanted Hindus to establish ‘an empire over Muslims’ for the purpose of creating ‘an imperial race’ of Hindus.’’ During the Second World War, Ambedkar was part of the Viceroy’s Executive Council as Labour Minister. This was the time when the forces of Hindutva were cheering the Nazis in Germany and calling for a ‘final solution’ for the Muslims in India on the lines of Jews in Germany. During this period, Ambedkar warned workers of the dangers of Nazism and its pernicious racial philosophy.
Prasenjit Bose has written a fine article on Ambedkar’s election to the Constitutional Assembly. Therefore, there is no further need for elaboration. What must be stated is Ambedkar’s own statement on his experience in the Constituent Assembly. On 25 November 1949, Ambedkar acknowledged, ‘‘The task of the Drafting Committee would have been very difficult if the Assembly had been a motley crowd, a tessellated pavement without cement, a black stone here and a white stone there…there would have been nothing but chaos…The Congress party, therefore, is entitled to all the credit for the smooth sailing of the Draft Constitution in the Assembly.’’
It is a matter of historical record that Ambedkar had troubles with the Jawaharlal Nehru-led government. Nehru did not have any acquaintance with Ambedkar before his inclusion into the cabinet at the instance of Gandhi. They differed on many issues. For instance, Ambedkar lamented the non-inclusion of his version of ‘State Socialism’ in the Objective Resolution. Nehru on his part defended it with an excuse that any delineation of a socialist State would be ‘something which may be agreeable to many and not be agreeable to some.’ The differences between the two represented two points on the continuum of progress. Ambedkar wanted to push it harder whereas Nehru desired to maintain the unity of the Congress which meant carrying the Congress conservatives along. There was no question of insult and personal dislike at least the way RSS-BJP portrays it.
Historically, Ambedkar’s relation to the forces of Hindutva is that of oil and water. They will never mix. No matter how much the saffron spoon is stirred.
(Shubham Sharma is a research scholar.)