
दुःखद सुखद का आनंद, आलेख शंकर देव तिवारी
एक समय था जब खबर के लिखने से पहले रफ लिख फेयर करने के बाद भी जब छपके आती तो भी सुधार देखने को मिलते थे। डेड लाइन का महत्व तो ढाई साल बाद समझ आ सका था। उससे पहले अवेतनिक का मर्म समझ आया था। १९८४ से शुरू ये यात्रा कलम और कागज की जो शुरू हुई जो आज तक कई उतारं चढ़ाव के साथ जारी है। जिसमें संवाददाता से उप सम्पादक यानी स्टापर फिर व्युरो सीनियर सब के बाद सीधे समाचार सम्पादक और सम्पादक प्रधान सम्पादक बिना प्रिंट लाइन का बना हट आज भी यह यात्रा जारी है।
वह दिन भी याद है जब एक खबर मौके से लेकर रात्रि भर मच्छरों से लड़ने जी बाद भी जब सुवह बिना छपने का क्या दर्द होता है भी सहते थे। वह दर्द अपनी जिम्मेदारी मिलने के बाद हमने किसी को न देने का भी श्रम कर सिद्धांत भी बना अमल मे लाने की सजा भी भुगत देनिक भास्कर जैसे ग्रुप को बाय बाय करने का अनुभव इस यात्रा का पूर्ण है मेरी अज्ञानता के रूप में।
आज की बात में मेरा केवल यह बताना उद्देश्य है कि जब मैं फील्ड में था तब का और ओफिस में बेठे कार्य करने के माध्य का समनव्य रखने का दौर कभी भी खत्म नहीं होना चाहिए।
इतनी दूरी समय के साथ चलने के बाद भी हम अभी भी उसी समन्वय को कायम करते आने के बाद भी दुखद सुखद का आनंद महसूस करता आ रहा हूँ।
आज भी जब ६४वर्ष की उम्र में दिन भर की कलम ताल का सिल सिला पढ़ने को नहीं छपा मिलता है तो वही दिन याद हो आता है। जब डेड लाइन गायब हो जाती थी…..
आज एक साप्ताहिक ने एक भी शब्द जब नहीं मेरा लिया तो वही दुःखद सुखद एहसास हुआ। एक देनिक ने दूसरे की डेड लाइन में मेरा भेजा फ़ोटो न लगा के मेरे श्रम का मजाक बनाया।
एक दिन तो पेजी नेटर ने लम्बी खबर न लिखने का आदेश वेरहमी से दे मारा।
जो हिदायत निर्देश शब्द अर्थ मन्थित् होते थे आज मुझपर ही हावी हैं। कब तक इस नशे में डुबा रहनद होगा जैसा पृश्न भू जब तब उत्तर जसाबे को उत्सुक होने लगता है मेरा कलम युक्त मन।