कहानी
दोनों बच्चे अमेरिका में हैं, लड़की का पति किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता है और लड़का वहां एमबीए कर रहा है। नोएडा की पॉश कॉलोनी में घर है, दिल्ली में भी एक फ्लैट है, बैंक में पर्याप्त बैलेंस है और पेंशन हर महीने खाते में क्रेडिट हो जाती है। प्रोफेसर विश्वनाथ प्रसाद यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ मैनेजमेंट के डॉयरेक्टर थे और उनकी पत्नी भी एक कॉलेज में प्रोफेसर थीं और दोनो लोग अब रिटायरमेंट लाइफ का आनंद ले रहे हैं।
भगवान का दिया हुआ सब कुछ है, इतना कि पास पड़ोसी रिश्तेदार रश्क करते हैं।
दो तीन साल गुजरा, प्रोफेसर विश्वनाथ नाना बन गए पर नाती का मुंह देखने को तरस गए। कई बार बेटी को कहा कि वह इंडिया आ जाए पर हर बार कुछ अर्जेंसी आ जाती। समय बीतता रहा, लड़के ने पढ़ाई पूरी कर वहीं पर जॉब कर ली। विश्वनाथ जी खुश थे। लड़के की शादी के लिए योजनाएं बनाई जाने लगीं। मां को तसल्ली हुई कि आई बहाने बेटा घर आयेगा। अकसर वह अपने पति से कहती कि बेटा आए तो उसे फिर वापस नहीं जाने दूंगी। इतनी प्रॉपर्टी है कि वह जीवन भर खा सकता है। विश्वनाथ जी मुस्कुरा कर रह जाते।
एक दिन बेटी ने बताया कि भाई ने शादी कर ली है। यह खबर सुनकर मां तो बिलख पड़ी लेकिन विश्वनाथ खामोश हो गए। उन्हे याद आ रहा था कि कैसे उनके पिता उन्हें दूल्हा बनाकर मंडप ले गए थे। सारा गांव जलसे में शामिल हुआ था। दिल की तमन्ना दिल में फांस बनकर रोज चुभने लगी।
खैर मां ने इच्छा जाहिर की कि अमेरिका चल कर बहू को देख आएं और इसी बहाने नाती को भी देख लेंगे लेकिन प्रोफेसर विश्वनाथ ने जी कड़ा कर लिया। बेटे ने शादी कर ली कोई बात नही पर कम से कम बता कर किया होता या आशीर्वाद ले लिया होता। उन्होंने पत्नी से कहा कि वह चली जाए लेकिन मैं नही जा सकता।
पत्नी मां जरूर थीं पर पहले वह पत्नी थीं। वह भी अमेरिका नही गईं। फोन पर बात जरूर होती थी पर बातचीत की आवृति अमेरिका की तरफ से कम होती गई। पति और संतान के बीच यह दबाव मिसेज विश्वनाथ से सहन नही हुआ। वह बिस्तर पर पड़ गईं। ट्यूबरकुलोसिस की वजह से शरीर ढांचे में बदल गया। खान पान और दवा करने में विश्वनाथ ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी पर मिसेज विश्वनाथ की दवा अमेरिका से आनी थी।
बार बार मां की हालत बिगड़ते देख बेटी ने टिकट करा लिया। इधर उसने घर में कदम रखा उधर मां के प्राण देह की देहरी छोड़ रहे थे। उन्होंने एकटक बिटिया को देखा और कुछ कहते कहते सदा के लिए मौन हो गईं। विश्वनाथ टूट गए, बेटे को फोन लगाया पर फोन व्यस्त था। वह बेटी से बार बार कहते रहे कि बेटा आ जाए कम से कम मां को मुखाग्नि दे दे।
थोड़ी देर बाद बेटे का कॉल अपनी बहन के फोन पर आया, विश्वनाथ ने स्पीकर पर फोन लेने को कहा। मां के देहांत की बात सुनकर उसने अफसोस जताया और बोला अच्छा हुआ बहन पापा के पास है। बेटी ने कहा कि वह भी आ जाए क्योंकि मां बाप की आखिरी इच्छा होती है कि उनके बच्चे उनके पास हों। यह सुनकर उसने कहा कि मां का क्रियाकर्म करने में पापा की तुम किसी तरह सहायता करो, पापा के टाइम मैं आ जाऊंगा।
यह सुनते प्रोफेसर विश्वनाथ चेतनाशून्य हो गए। नीम बेहोशी की हालत में वह अपने पुत्र को कंधो पर उठाए स्कूल ले जाते देख रहे थे, फिर उन्ही कंधो पर वह अपने पिता की अर्थी उठाए देखने लगे। एक झटके से उनकी चेतना लौटी सामने मृत पत्नी की देह थी, उनका चेहरा भिंच गया, वह अपने स्टडी रूम में गए, कुछ देर में अंदर से गोली चलने की आवाज आई, बेटी अंदर भागी, देखा तो विश्वनाथ जी ने खुद को गोली मार ली थी। उसने लहूलुहान पिता को हाथ फैलाए देखा, उनके हाथ में एक चिट्ठी थी। बेटी ने जैसे ही चिट्ठी पकड़ी हाथ एक तरफ झूल गया।
चिट्ठी में लिखा था,
‘ बेटे! अब घर आ जाओ, तुमने कहा था कि तुम मेरी बारी आओगे मगर तब तक तुम्हारी मां इंतजार नही कर सकती थी, अब आकर एक साथ दोनों को अग्नि देना।’