कर्नाटक में कांग्रेस की मजबूत वापिसी,
लेकिन पार्टी खुशफहम न हो..
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कर्नाटक में कांग्रेस की मजबूत वापिसी,
लेकिन पार्टी खुशफहम न हो..
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कर्नाटक के चुनावी नतीजे एक्जिट पोल वाले ही रूख के रहे। अधिकतर एक्जिट पोल कांग्रेस को सबसे बड़ी पार्टी बता रहे थे, और वैसा ही हुआ। इसकी उम्मीद इसलिए भी की जा रही थी कि यह राज्य हर पांच बरस में सत्तारूढ़ पार्टी को तवे पर पराठे की तरह पलट देता है। लेकिन इसके साथ-साथ कुछ दूसरे मुद्दे भी थे जो छोटे नहीं थे। राज्य में भाजपा की सरकार बड़ी भयानक भ्रष्ट कही जा रही थी। लोगों का कहना था कि ठेकेदारों से 40 फीसदी कमीशन लिया जाता है। कुछ दूसरे मुद्दे भी थे जिनमें से एक यह था कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को भाजपा ने कार्यकाल के बीच बिना किसी वजह हटाया था, और एक नया मुख्यमंत्री तैनात किया था, जैसा कि उसने गुजरात में भी किया था। लेकिन गुजरात में हटाए जाने वाले मुख्यमंत्री येदियुरप्पा जैसी ताकत वाले नहीं थे, और कर्नाटक में तो लिंगायत स्वामियों ने येदियुरप्पा के पक्ष में प्रदर्शन भी किया था। इस समुदाय में राज्य की 16 फीसदी आबादी है, और यह 224 सीटों में से सौ सीटों पर प्रभामंडल रखता है। तो इस बार भाजपा की हार के पीछे येदियुरप्पा को हटाने से नाखुश उनका समुदाय भी हो सकता है।

लेकिन भाजपा ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं रखी थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बाकी पूरे देश को छोडक़र कर्नाटक चुनाव पर ही ध्यान लगाकर बैठे थे, और किसी राज्य के चुनाव में प्रधानमंत्री का इतना लंबा-चौड़ा चुनाव प्रचार कम ही देखने में आता है। भाजपा ने अपने पसंदीदा मुद्दों को चुनाव से पहले से शुरू कर दिया था, और मुस्लिमों को मिलने वाले 4 फीसदी ओबीसी आरक्षण को खत्म कर दिया था। इसे राज्य की ताकतवर हिन्दू जातियों में बांटने की बात कही गई थी। राज्य में उन्होंने 19 अलग-अलग बड़ी आमसभाओं में आक्रामक भाषण दिए थे। कांग्रेस के खिलाफ उनके हमले सच से कुछ दूर-दूर भी चलते रहे, लेकिन चुनाव आयोग से उस पर गौर करने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र में पीएफआई और बजरंग दल जैसे मुस्लिम और हिन्दू सांप्रदायिक संगठनों पर प्रतिबंध की बात की बांह मरोडक़र उसे बजरंग बली को ताले में बंद करने की बात में बदल दिया। यह उस प्रदेश में खासी गंभीर बात थी जो कि बजरंग बली को अपने प्रदेश का बेटा मानता है, कर्नाटक को उनकी जन्मस्थली मानता है। ऐसी और भी बहुत सी तिकड़में हुईं, लेकिन कोई काम नहीं आईं। लोगों ने राज्य की परंपरा के मुताबिक पांच बरस में सत्ता पलट दी, भ्रष्टाचार से खफा होकर सत्ता पलट दी, येदियुरप्पा के समुदाय ने नाराजगी में वोट नहीं दिया या भाजपा के खिलाफ वोट दिया, ऐसी दर्जन भर वजहें हो सकती हैं, और चुनाव में इनके योगदान को अलग-अलग काटकर देख पाना मुमकिन नहीं होता। इनमें से कम से कम भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है जो कि देश के तमाम प्रदेशों पर लागू होता है कि अगर सरकार की साख खराब हो, तो सत्तारूढ़ पार्टी को उसका भुगतान करना पड़ सकता है।

कांग्रेस पार्टी के लिए यह जीत एक बहुत बड़ी राहत की बात इसलिए है कि यह हिमाचल में चुनाव जीतने के तुरंत बाद सामने आई है। लगातार देश भर में प्रदेश खोने के बाद अब कांग्रेस ने लगातार दो राज्य पाए हैं, और यह छोटी बात नहीं है। सोनिया, राहुल, और प्रियंका, इन तीनों ने चुनाव प्रचार में हिस्सा लिया था। दूसरी तरफ देश और प्रदेश में अपनी सत्ता रहने के बाद भी भाजपा जिस तरह यह चुनाव हारी है उससे उसकी यह प्रतिमा भी टूटी है कि वह अजीत है, जिससे जीता नहीं जा सकता। कर्नाटक के दूसरे मुद्दों का भी देश भर में बाकी चुनावों पर असर पड़ेगा, लेकिन छह महीने बाद पांच राज्यों के चुनाव में तो इसका असर पड़ेगा ही क्योंकि इनमें से तीन बड़े राज्य, मध्यप्रदेश, राजस्थान, और छत्तीसगढ़ कांग्रेस की संभावनाओं वाले राज्य हैं, और इनसे वहां एक माहौल बनेगा। कांग्रेस के राज्यों में संगठन के भीतर लीडरशिप को लेकर जो संघर्ष चलता है, वह कर्नाटक में भी था, लेकिन उसका असर इस जीत पर नहीं पड़ा है, गुटबाजी में कुछ वोट और सीट का नुकसान हुआ हो तो अलग बात है।

अभी इस पल, दोपहर 2.15 पर, चुनावी रूझान 138 सीटों पर कांग्रेस की लीड बता रहा है जो कि 58 सीटों का नफा है। भाजपा की 64 सीटों पर बढ़त दिख रही है जो कि पिछली बार से 40 सीटें कम हैं। भूतपूर्व प्रधानमंत्री एच.डी.देवेगौड़ा की पार्टी जेडीएस 19 सीटों पर आगे है जो कि पिछले बार से 18 सीटों का नुकसान है। जहां तक वोटों की बात है तो भाजपा अपने वोट शेयर बनाए रखने में कामयाब रही है, कांग्रेस का वोट शेयर छह फीसदी बढ़ा है, और जेडीएस का वोट शेयर पांच फीसदी घटा है, ये आंकड़े थोड़े-बहुत आगे-पीछे होते चलेंगे, लेकिन ऐसा आसार है यह रूझान अब ऐसा नहीं बदल सकता कि कांग्रेस की सरकार न बने। आज वोटों की गिनती शुरू होने के पहले ही दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में ढोल बजने शुरू हो गए थे जिनमें बाद में भांगड़ा भी जुड़ गया, हालांकि उस वक्त तक रूझान जरा भी साफ नहीं थे, लेकिन पार्टी एक्जिट पोल से ही एक उत्साह से भरी हुई थी, और देश में एक मजबूत विपक्ष होने के नाते, आज कांग्रेस का थोड़ा सा मजबूत हो जाना एक अच्छी बात ही है, खतरा सिर्फ यही है कि इससे छह महीने बाद के पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस कहीं बददिमाग न हो जाए। यह चुनाव हो सकता है कि कांग्रेस को जिताने वाला चुनाव न रहा हो, और यह भ्रष्ट सरकार को हराने का चुनाव रहा हो।

फिलहाल यह मौका कांग्रेस के खुशी मनाने का है, और भाजपा के लिए यह सोचने का है कि बजरंग दल से बजरंग बली की तुलना क्या धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली हो गई, या बजरंग बली उससे नाखुश हो गए? –

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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